+ ज्ञान जिस अर्थ से उत्पन्न होता है, जिस आकार का अनुकरण करता है और जिसके विषय में निश्चय को उत्पन्न करता है, उसी विषय में उस ज्ञान की प्रमाणता है किन्तु सर्वत्र नहीं है, ऐसी सौगत की आशंका का आचार्य खंडन करते हैं -
न तज्जन्म न ताद्रूप्यं न तद्व्यवसिति: सह॥
प्रत्येकं वा भजंतीह प्रामाण्यं प्रति हेतुतां॥8॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[इह] ज्ञान में [प्रामाण्यं प्रति] प्रमाणता के प्रति [तज्जन्म] तदुत्पत्ति [हेतुतां न] हेतु नहीं है, [न ताद्रूप्यं] न तदाकारता है और [न तद् व्यवसिति:] न तद्ध्यवसाय ही है [सह प्रत्येकं वा भजंति] ये तीनों न मिलकर ही हेतु हैं न एक-एक ही हेतु होते हैं॥८॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-इस ज्ञान में प्रमाणता के प्रति निमित्त भाव को नहीं प्राप्त होते हैं। क्यों नहीं होते हैं ? तज्जन्म-ज्ञान की उस अर्थ से उत्पत्ति होती है, इस मान्यता में उस ज्ञान में इंद्रियों से व्यभिचार आता है इसलिए पदार्थ ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त नहीं है, यह अर्थ हुआ है। ज्ञान में तद्रूपता भी नहीं है, उस अर्थ के समान रूप को-आकार को धारण करने वाला तद्रूप कहलाता है उसके भाव को ताद्रूप्य कहते हैं। उस तद्रूप का समानार्थ समनंतर ज्ञान के साथ व्यभिचार होता है और उसका व्यवसाय भी कारण नहीं है-उस अर्थ का निश्चय होना भी ज्ञान में कारण नहीं है क्योंकि द्विचंद्रादि के निश्चय के साथ व्यभिचार आता है। ये एक-एक या साथ में मिलकर प्रमाणता में हेतु नहीं होते हैं क्योंकि ये तीनों भी शुक्ल शंख में पीताकार ज्ञान के अनेक होने से समनंतर ज्ञान से व्यभिचारी होते हैं।

भावार्थ-बौद्धों ने तदुत्पत्ति, तद्रूपता और तदध्यवसाय को ज्ञान की प्रमाणता में कारण माना है किन्तु आचार्यदेव का कहना है कि न तो ये पृथक्-पृथक् ही ज्ञान की प्रमाणता में कारण हो सकते हैं और न तीनों मिलकर ही हो सकते हैं क्योंकि ये तीनों ही व्यभिचरित हैं।