+ ‘ज्ञानं प्रमाणं आत्मादे:’- अब ज्ञान प्रमाण है वह आत्मा आदि को विषय करता है, इसी ही अर्थ को और स्पष्ट करते हैं -
व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतं॥
ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमुश्नुते॥10॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[व्यवसायात्मकं ज्ञानं] निश्चयात्मक ज्ञान [आत्मार्थग्राहकं मतं] अपने को और अर्थ को ग्रहण करने वाला माना गया है [ग्रहणं] वह ज्ञान [निर्णय:] निर्णयरूप है [तेन] इसलिए वह [मुख्यं प्रामाण्यं] मुख्य प्रमाणता को [अश्नुते] प्राप्त होता है॥१०॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-विशेष-जाति आदि आकार का अवसाय-निश्चय व्यवसाय कहलाता है वह निश्चय ही आत्मा-स्वरूप जिसका है वह ज्ञान व्यवसायात्मक माना गया है। इस कथन से ‘प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पना से रहित है’ ऐसी बौद्ध की मान्यता का खंडन हो जाता है पुन: वह ज्ञान आत्मा और अर्थ का ग्राहक है, आत्मा-स्वरूप और अर्थ-घटादि बाह्य पदार्थ इनको ग्रहण करने वाला है अर्थात् अपने स्वरूप और बाह्य पदार्थों का निर्णय कराने वाला है।

इस कथन से ज्ञान अर्थ का ही ग्राहक है स्वरूप का ग्राहक नहीं है अथवा ज्ञान अपने स्वरूप का ही ग्राहक है अर्थ का ग्राहक नहीं है, इन दोनोें ही एकांत मान्यताओं का निराकरण कर दिया गया है इसलिए यह ग्रहण-ज्ञान निर्णयरूप है अर्थात् स्वार्थ व्यवसायरूप है यह अर्थ हुआ, उसी हेतु से यह प्रमाणता को प्राप्त होता है और यह ज्ञान कैसा है ? मुख्य-अनुपचरित है क्योंकि ज्ञानरूप क्रिया के प्रति कारण है किन्तु इंद्रिय, लिंग आदि तो उपचार से ही प्रमाण होते हैं इसलिए यह बात ठीक ही कही है कि आत्मादि का ज्ञान प्रमाण है, ऐसा समझना।