अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-जो सम्यग्ज्ञान स्वरूप प्रमाण है वह दो प्रकार का ही है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रश्न-अनुमान आदि प्रमाण के भेदों की संख्या भी संभव है। उत्तर-नहीं, जो आप बौद्धदि लोगों के द्वारा कल्पित दो, तीन, चार आदि संख्या का नियम है वह संभव नहीं है क्योंकि उन सभी अनुमान आदि ज्ञानों का इन्हीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दो प्रमाणों में ही अंतर्भाव हो जाता है। उसमें से प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रिय प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के भेद से तीन प्रकार का है। स्पर्शन आदि इंद्रियों के व्यापार से उत्पन्न होने वाला ज्ञान इंद्रिय प्रत्यक्ष है। केवल मनोव्यापार से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ये दोनों ही सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं क्योंकि ये एकदेश विशदता को लिए हुए हैं। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष कहलाता है। उसके अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से तीन भेद हैं। उनमें से मूर्तिक द्रव्यों का अवलंबन लेने वाला अवधिज्ञान है, उसके भी देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से तीन भेद हैं। उन तीनों में से देव और नारकियों के देशावधि होती है और वह भवप्रत्यय ही होती है तथा तिर्यंच और मनुष्यों की अवधि गुणप्रत्यय कहलाती है। परमावधि-सर्वावधि ये दोनों अवधिज्ञान चरमशरीरी-उसी भव से मोक्ष जाने पर संयमी-मनुष्य के ही होते हैं और ये गुणप्रत्यय कहलाते हैं। ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं। प्रगुण-सरणता से निर्वर्तित मन, वचन, कायगत सूक्ष्म द्रव्य का अवलंबन लेने वाला-जानने वाला ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है। सरल और कुटिलता से निर्वर्तित मन, वचन, कायगत सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थ का अवलंबन लेने वाला विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान है। त्रिकालगत अनंत पर्याय से परिणत जीव, अजीव द्रव्यों को युगपत् साक्षात् जानने वाला केवलज्ञान है, वह संपूर्ण आवरण कर्म और वीर्यांतराय कर्म के निरवशेष नष्ट हो जाने से होता है। ‘इस केवलज्ञान को प्राप्त करने वाला कोई पुरुष विशेष है क्योंकि सुनिश्चितरूप से बाधक प्रमाण असंभव है, सुखादि के समान’ वास्तव में उस सर्वज्ञ को बाधित करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान तो है नहीं, क्योंकि वह इंद्रिय प्रत्यक्ष उसमें प्रवृत्त ही नहीं हो सकता है। प्रश्न-उससे निवर्तमान ही उसका बाधक है अर्थात् सर्वज्ञ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है इसलिए तो वह नहीं है ? उत्तर-यह कथन अयुक्त है, क्योंकि ऐसे तो दीवाल आदि के परभाग आदि का भी अभाव हो जावेगा। अनुमान भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं है क्योंकि वह उत्पन्न ही नहीं हो सकता है। साध्य-साधन के संबंध को ग्रहण करने पूर्वक ही अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है। वक्तृत्व आदि हेतु का सर्वज्ञत्व साध्य के साथ संबंध है इस बात को संपूर्ण रूप से जानना किसी को भी शक्य नहीं है, क्योंकि सभी लोग अल्पज्ञ हैं। आप कहें कि भिन्न अनुमान से उस साध्य-साधन के संबंध का ज्ञान हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो अनवस्था आ जाती है इसलिए संदिग्धरूप से अनैकांतिक ऐसे वक्तृत्व आदि हेतु से सर्वज्ञ का निषेध सिद्ध नहीं हो सकता है। आगम से भी ये सर्वज्ञ बाधित नहीं होते हैं, क्योंकि आपके द्वारा मान्य इस आगम को अपौरुषेयपना सिद्ध नहीं है किन्तु उसको पौरुषेय ही सिद्ध किया है। इष्ट-प्रत्यक्ष और अदृष्ट-अनुमानादि से अविरुद्ध वचन ही आगम है, न कि सर्वज्ञ। और वह आगम सर्वज्ञदेव से प्रणीत ही हो सकता है न कि राग, द्वेष और मोह से व्याप्त पुरुषों से कथित वचनरूप, क्योंकि उनमें वैसे प्रत्यक्षादि से अविरुद्ध वचनों के प्रयोग का अभाव है, रथ्यापुरुष के समान-पागल पुरुष के समान। प्रश्न-इस प्रकार का आगम तो सौगत आदि के यहाँ भी संभव है अत: अर्हंत ही उस आगम के प्रणेता संभव नहीं हैं ? उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि वे सौगत आदि भी प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध वचन के बोलने वाले हैं। ‘अनेकांतस्वरूप वस्तु का प्रतिपादक प्रवचन प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरोधी है क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उसमें विसंवाद नहीं आता है।’ ऐसा समझना। विशेषार्थ-यहाँ पर आचार्य ने प्रमाण के दो भेद बताये हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। उनमें से प्रत्यक्ष के भी सांव्यवहारिक और मुख्य ऐसे दो भेद किये हैं। सांव्यवहारिक में इंद्रिय प्रत्यक्ष और अनिंद्रिय प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद होते हैं। अवधि में भी देशावधि, परमावधि और सर्वावधि से तीन भेद हो गये हैं। देशावधि के दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। देव, नारकियों के भवप्रत्यय देशावधि ही होती है तथा मनुष्य और तिर्यंचों के क्षयोपशम की मुख्यता से गुणप्रत्यय देशावधि ही होती है। परमावधि, सर्वावधि तद्भव मोक्षगामी परमसंयमी मुनियों के होती हैं। मन:पर्यय ज्ञान के भी ऋजुमती और विपुलमती दोनों भेद संयमी के ही होते हैं। ये दोनों ज्ञान देशप्रत्यक्ष कहलाते हैं। केवलज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। यह जिनके होता है वे सर्वज्ञ कहलाते हैं। कुछ लोग-मीमांसक आदि सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं मानते हैं। इस पर आचार्य ने कहा है कि ‘सर्वज्ञ नहीं है’ इस बात को जानने वाला इंद्रिय प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता है क्योंकि उसका विषय सीमित है और वर्तमान का ही है, हाँ, यदि कोई अपने प्रत्यक्ष से तीनों लोकों और तीनों कालों को देखकर निर्णय दे दे कि कोई भी सर्वदर्शी नहीं है तो भाई! वह तो स्वयं ही सर्वदर्शी सर्वज्ञ बन गया है। वैसे ही अनुमान से भी ‘सर्वज्ञ नहीं है’ इस बात को सिद्ध करना कठिन है तथा आगम से निषेध करना चाहो सो भी ठीक नहीं है क्योंकि पहले आगम को प्रमाणीक सिद्ध करना चाहिए। आगम अपौरुषेय है अत: प्रमाणीक है इतना मात्र कहने से भी कुछ नही होगा क्योंकि अपौरुषेय आगम की सिद्धि नहीं है प्रत्युत् पुरुषकृत ही आगम सिद्ध हो रहे हैं। उनमें भी सर्वज्ञ प्रणीत आगम ही निर्दोष है, अल्पज्ञों के द्वारा प्रणीत नहीं है। |