+ अब श्रुत के व्यापार भेद को दिखाते हैं -
उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ॥
स्याद्वाद: सकलादेशो नयो विकलसंकथा॥12॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[श्रुतस्य] श्रुतज्ञान के [स्याद्वादनयसंज्ञितौ] स्याद्वाद और नय इन नाम वाले [द्वौ उपयोगौ] दो व्यापार हैं। [सकलादेश:] संपूर्ण को कहने वाला [स्याद्वाद:] स्याद्वाद है और [विकलसंकथा] एक-एक अंश को सम्यक् प्रकार से कहने वाला [नय:] नय है॥१२॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-श्रुत-आप्तवचनरूप आगम के दो उपयोग व्यापार हैं। वर्णपदवाक्यात्मक द्रव्यरूप का श्रवण करना श्रुत है अथवा भावश्रुत का श्रवण श्रुत है ऐसा श्रुत शब्द का निरुक्ति अर्थ है। श्रुत के दो व्यापार कौन से हैं ? स्याद्वाद और नय हैं।

(स्याद्वाद का व्यापार)

स्यात्-कथंचित् प्रतिपक्ष की अपेक्षा से जो कथन होता है वह २स्याद्वाद कहलाता है। नयनं-वस्तु के विवक्षित धर्म को प्राप्त कराने वाला नय३ है। अब इन दोनों के लक्षण को कहते हुए पहले स्याद्वाद को कहते हैं -

वह स्याद्वाद सकलादेशी है-सकल-अनेक धर्मात्मक वस्तु को आदेश कहना सकलादेश है। जैसे-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह अर्थ हैं। उनमें से ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य इन असाधारण धर्मों से, सर्वत्र प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, धर्मित्व, गुणित्व आदि साधारण धर्मों से तथा अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, असंख्यात प्रदेशत्व आदि साधारणासाधारण धर्मों से अनेकांतात्मक-अनेकों धर्म वाला जीव है। पुन: पुद्गल, स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन असाधारण धर्मों से, सत्त्व आदि साधारण धर्मों से तथा अचेतनत्त्व, मूर्तत्त्व आदि साधारणासाधारण धर्मों से अनेकांतात्मक है। धर्मद्रव्य गतिहेतुरूप असाधारण धर्म से, सत्त्व आदि साधारण धर्मों से और अचेतनत्व आदि उभयरूप धर्मों से अनेकांतात्मक है। अधर्मद्रव्य स्थिति हेतुरूप असाधारण धर्म से, अस्तित्व आदि साधारण धर्मों से और अमूर्तत्व आदि साधारणासाधारण धर्मों से अनेकांतात्मक है। अवगाहनरूप असाधारण धर्म से, अस्तित्व आदि साधारण धर्मों से और अमूर्तत्वादि उभयरूप धर्मों से भी आकाश द्रव्य अनेकांतात्मक है। वर्तनालक्षण असाधारण धर्म से, अस्तित्व आदि साधारण धर्मों से और अमूर्तत्वादि साधारणासाधारण धर्मों से कालद्रव्य अनेकांतात्मक है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त सत् होता है, स्याद्वाद ऐसा प्रतिपादन करता है।

(नय का व्यापार)

एक धर्म का सम्यक् कथन करना नय है। विकल-विवक्षित एक धर्म का सं-सम्यक् प्रकार से-प्रतिपक्ष की अपेक्षा से कथा-प्रतिपादन करना नय है, जैसे जीव ज्ञाता ही है, ऐसा देखना चाहिए इत्यादि।

प्रश्न-पहले आपने कहा है कि ज्ञाता का अभिप्राय नय है, पुन: इस समय ‘वचनात्मक नय हैं’ ऐसा आप कह रहे हैं, सो क्या बात है ?

उत्तर-उपचार से नय के हेतुभूत वचन को भी नयपना विरुद्ध नहीं है, जैसे कि श्रुतज्ञान के हेतुभूत वचन को श्रुत, ऐसा नाम कह देते हैं।

उसी का स्पष्टीकरण करते हैं -

कथंचित् जीव ही ज्ञानादि अनेक धर्मात्मक है, यह प्रमाणवाक्य है। कथंचित् अस्ति ही जीव है वह नय वाक्य है और यह सप्तभंगी से प्रतिष्ठित है।

स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् अस्ति रूप ही है। परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् अस्ति रूप ही है। स्वपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की क्रम से विवक्षा होने से कथंचित् जीव अस्तिनास्तिरूप ही है। युगपत् स्व और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् अवक्तव्य ही है। स्वद्रव्यादि चतुष्टय की विवक्षा के साथ युगपत् स्वपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् अस्तिअवक्तव्य ही है। परद्रव्यादि विवक्षा के साथ युगपत् स्वपर द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् नास्ति अवक्तव्य है। क्रम से स्वपर द्रव्यादि की विवक्षा के साथ युगपत् स्वपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विवक्षा से जीव कथंचित् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है।

इस प्रकार से प्रत्यक्ष और अनुमान के अविरोध रूप से विधि-प्रतिषेध के द्वारा सर्वत्र सप्तभंगी कल्पना संभव है। इसी प्रकार से एक-अनेक, नित्य-अनित्य और भेद-अभेद आदि में भी सप्तभंगी को लगा लेना चाहिए।

विशेषार्थ-यहाँ पर आगम के दो व्यापार बताये हैं-एक तो स्याद्वाद-प्रमाण, दूसरा नय। प्रत्येक वस्तु को अनेक धर्मात्मक ग्रहण करने वाला स्याद्वाद नाम वाला प्रमाण वाक्य है और प्रत्येक वस्तु के विवक्षित किसी एक धर्म को उसके विरोधी धर्म की अपेक्षा के साथ ग्रहण करने वाला नय वाक्य है। जैसे जीव को अस्तित्व आदि साधारण धर्मों से, चेतनत्व आदि असाधारण धर्मों से और उभयात्मक धर्मों से सहित अनेक धर्म वाला कहना। यह प्रमाण वचन है। उसके अस्ति धर्म को स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से कहते हुए भी उसके प्रतिपक्षी नास्ति धर्म का निषेध नहीं करना किन्तु गौण करना यह सुनय का काम है। यदि नास्ति धर्म का निषेध करके यह दुराग्रह रूप एकांत से जीव को अस्तिरूप ही कहे तब यह दुर्नय हो जाता है। यह नयवाक्य सप्तभंगी से युक्त होता है। (ऐसा समझना)