अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-स्यात् यह पद अव्यय रूप है, ऐसा यह स्यात्कारपद सर्वत्र-शास्त्र में अथवा लोक में विधि को-अस्तित्व आदि को साध्य करने में प्रतीति में आता है-जाना जाता है। केवल विधि में ही नहीं किन्तु निषेध में भी-असत्त्व आदि को साध्य करने पर भी यह स्यात्कार प्रतीति में आता है। अन्यत्र भी-अन्य अनुवाद के अतिदेश आदि में भी यह प्रतीत होता है। किस प्रकार का होता हुआ ? अप्रयुक्त भी ‘स्यात् अस्ति जीव:’ ऐसा कथन नहीं करने पर भी यह स्यात्कार अर्थ-सामथ्र्य से (अर्थापत्ति से) प्रतीत हो जाता है। उसी का स्पष्टीकरण - मोक्ष्मार्ग को सम्यग्दर्शन आदि त्रयात्मक कहने पर उसमें एकत्व कैसे है ? अथवा एकत्व मानने पर तीनपना कैसे है ? इस प्रकार के विरोध में कथंचित् इस प्रकार से ही परिहार होता है किन्तु सर्वथा से नहीं। क्योंकि द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से मार्ग में एकत्व और अनेकत्व का विरोध नहीं है इसलिए ‘कथंचित्’ इस अर्थ की सामथ्र्य से उसका वाचक स्यात्कार प्रयुक्त न होते हुए भी प्रतीति में आता ही है। यदि प्रयोजक-प्रतिपादन करने वाला व्यक्ति कुशल है-व्यवहार में जानकार है, तो ऐसी बात है। उसी प्रकार से एवकार भी प्रतीति में आता है। उसी हेतु से रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है, इस प्रकार के अवधारण के अभाव में सम्यग्दर्शन ही मार्ग हो जावेगा अथवा अन्य ही कोई अर्थात् ज्ञान ही या चारित्र ही मार्ग हो जावेगा, अथवा कोई भी दो ही मार्ग हो जावेंगे, इस प्रकार से अतिप्रसंग दोष दुर्निवार हो जावेगा अर्थात् एवकार का प्रयोग न होने पर भी सामथ्र्य से एवकार का अर्थ लेना चाहिए अन्यथा कुछ भी अर्थ हो जावेगा किन्तु ऐसी बात तो है नहीं क्योंकि असाधारण स्वरूप को ही लक्षण कहते हैं। प्रश्न-इस प्रकार बिना प्रयुक्त भी यदि स्यात्कार और एवकार की सामथ्र्य से प्रतीति हो जाती है तब तो कोई भी कहीं पर इनको क्यों प्रयुक्त करते हैं ? उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि प्रतिपाद्य-शिष्य के अभिप्राय के निमित्त से उनका प्रयोग होता है। भावार्थ-आचार्यों का यह स्पष्ट कहना है कि यद्यपि स्थल-स्थल पर वाक्य-वाक्य में स्यात्कार का प्रयोग नहीं होता है फिर अर्थापत्ति से लगा लेना चाहिए। जैसे किसी ने कहा जीव शुद्ध है तो समझ लेना चाहिए कि कथंचित् अशुद्ध भी है। ऐसे ही एवकार के विषय में भी प्रयुक्त न होने पर भी यथोचित् उसका भी अर्थ लेना चाहिए और जहाँ-जहाँ पर इनका स्पष्ट प्रयोग है वहाँ पर शिष्यों के अभिप्राय से आचार्यों ने प्रयोग कर दिया है। |