अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-गकार आदि अक्षर वर्ण हैं तथा गौ आदि शब्द पद कहलाते हैं और ‘गाय को लावो’ इत्यादि वाक्य संज्ञक हैं, ये अवांक्षित-अविवक्षित भूमि आदि को वांछित-विवक्षित सास्नादिमान् आदि अर्थ को-वाच्य को कहते हैं। किन्हीं मंदबुद्धि वाले शिष्यों में नहीं भी कहते हैं क्योंकि उनको इनसे अर्थ का बोध नहीं होता है, इस प्रकार से सर्वजन प्रतीति प्रसिद्ध है, ईदृशी-ऐसी विचित्र रूढ़ि को व्यवहारीजन स्वीकार करते हैं क्योंकि उसी प्रकार से ही अर्थक्रिया हो सकती है। उनमें वर्ण, स्वर और व्यंजनरूप से चौंसठ हैं। परस्पर में सापेक्ष वर्गों का निरपेक्ष समुदाय पद कहलाता है, उसके अव्यय और अव्ययरहित की अपेक्षा से दो भेद हैं। उनमें भी अव्ययरहित के सुबंत और तिङंत की अपेक्षा से दो भेद हैं और तस्, आदि के भेद से अव्यय अनेक प्रकार का है। परस्पर सापेक्ष पदों का जो निरपेक्ष समुदाय है वह वाक्य है। उसके भी क्रिया प्रधान, कारक प्रधान और उभयात्मक ऐसे तीन भेद हैं। इस प्रसिद्धि का अतिक्रमण करके ही-उल्लंघन करके ही स्वैर भाव से कहने वाले सौगतों को क्या यह कहना युक्त है कि शब्द वक्ता के अभिप्राय मात्र के सूचक हैं अर्थात् प्रयोजक की विवक्षा मात्र को ही कहने वाले हैं किन्तु बाह्य अर्थ को नहीं। नु-अहो! यह बड़े आश्चर्य की बात है। इस कथन से यहाँ पर आक्षेप सूचित हो रहा है क्योंकि सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थों की शब्द के प्रयोग से प्रतीति होती है, वे शब्द ही उस अर्थ को कहते हैं। उस शब्द से स्वप्न में भी अभिप्राय की प्रतीति नहीं होती है। जिससे जिस विषय में प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति का होना सम्यक् प्रकार से अनुभव में आता है, वह उसका अर्थ है, यह न्याय है। भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि शब्द बोलने वाले के अभिप्राय मात्र को ही कहते हैं न कि पदार्थों को। इस पर आचार्य आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जैसा कि लोकव्यवहार में अनुभव आ रहा है कि शब्द अपने वाच्य अर्थ को कहते भी हैं, पुन: प्रतीति के विरुद्ध कथन करना कहाँ तक उचित है ? |