+ अब ऋजुसूत्रनय और तदाभास का प्ररूपण करते हैं -
भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसूत्रनयो मत:॥
सर्वथैकत्वविक्षेपी तदाभासस्त्वलौकिक:॥21॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[प्राधान्यत:] प्रधानता से [भेदं] भेद को [अन्विच्छन्] स्वीकार करते हुए [ऋजुसूत्रनय: मत:] ऋजुसूत्रनय माना गया है और [सर्वथा] सब प्रकार से [एकत्वविक्षेपी] एकत्व का निषेध करने वाला [तु अलौकिक: तदाभास:] तो लोकव्यवहार से विरुद्ध तदाभास होता है।।२१।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-प्रधानता से-मुख्यता से भेद को-पर्याय को विषय करते हुए ऋजुसूत्र नय कहलाता है, यह गौणरूप से द्रव्य की भी अपेक्षा रखता है, ऐसा यहाँ अर्थ है। पुन: एकत्व-द्रव्य का निराकरण करने वाला तदाभास है क्योंकि यह सर्वथा प्रधानरूप से और अप्रधानरूप से द्रव्य को ग्रहण करता है और यह अलौकिक है अर्थात् लोकव्यवहार वह प्रयोजन जिसका है वह लौकिक है, उससे विपरीत अलौकिक कहा जाता है। यह तदाभास व्यवहार का विरोधी है, ऐसा अर्थ है। परस्पर में सजातीय-विजातीय से व्यावृत्त प्रतिक्षण विसरारू-जीर्ण होने वाले परमाणु परीक्षकजनों के द्वारा व्यवहार को नहीं प्राप्त होते हैं कि जिससे उसका विषय नयाभास न हो जावे अर्थात् बौद्धों द्वारा मान्य क्षणिक परमाणु व्यवहार में नहीं दिखते हैं इसीलिए उनका ग्राहक नय ऋजुसूत्र नयाभास है।