+ अब निक्षेप के स्वरूप को निरूपण करते हुए शाध्Eा अध्ययन के फल का निर्देश करते हैं -
श्रुतादर्थमनेकांतमधिगम्याभिसंधिभि:॥
परीक्ष्य ताँस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥1।
नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने ॥
विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतार्पितान्॥2॥
अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदागतै:॥
द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशन:॥3॥
जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित्॥
तपोनिर्जीर्णकर्माऽयं विमुक्त: सुखमृच्छति॥4॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[श्रुतान] श्रुत से [अनेकांत] अनेकांतात्मक [अर्थं अधिगम्य] अर्थ को जानकर [तांस्तान्] उन-उन [अनेकात् व्यावहारिकान्] अनेक व्यावहारिक [तद्धर्मान्] उस-वस्तु के धर्मों की [अभिसंधिभि:] ज्ञाता के अभिप्रायरूप नयों से [परीक्ष्य] परीक्षा करके [उपायै:] ज्ञान के लिए उपायभूत [नयानुगतनिक्षेपै:] नयों का अनुसरण करने वाले ऐसे निक्षेपों से [भेदवेदने] भेदों के जानने में [श्रुतार्पितान्] श्रुत से विकल्पित [अर्थवाक्यप्रत्यात्म भेदान्] अर्थात्मक, वचनात्मक और ज्ञानात्मक भेदों का [विरचय्य] न्यास करके-कथन करके, [आत्मा] जीव [विवृद्धाभिनिवेशन:] वृद्धि को प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन से सहित [निर्देशादिभिदागतै:] निर्देश आदि भेदों को प्राप्त हुए ऐसे [अनुयोगै:] अनुयोगों से [जीवादीनि] जीवादिक [द्रव्याणि] द्रव्यों को [अनुयुज्य] पूछ करके [जीवस्थानगुणस्थानमार्गणा स्यात् तत्त्ववित्] जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानों के द्वारा तत्त्व-जीवादिस्वरूप को जानने वाला [तपोनिर्जीर्णकर्मा] तप से कर्मों को निर्जिर्ण कर दिया है जिसने [अयं] ऐसा यह [विमुक्त:] कर्मों से मुक्त हुआ [सुखं] सुख को [ऋच्छति] प्राप्त करता है।।१-२-३-४।।

  सूरि 

सूरि :

तात्पर्यवृत्ति-यह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध आत्मा विमुक्त होता हुआ वि-विशेष रूप से (समस्त रूप से) मुक्त-कर्मरहित होता हुआ परम स्वास्थ्यरूप अनंतज्ञानादि गुणस्वरूप सुख को प्राप्त कर लेता है। वह कैसा है आत्मा ? तप से कर्म को जिसने निर्जीण कर दिया है, तप-यथाख्यात चारित्र लक्षण वाले व्युपरतक्रियानिवृत्तिरूप चतुर्थ शुक्लध्यान से जिसने ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म का और भावकर्म का निर्मूलन कर दिया है वह आत्मा ऐसा है। इस कथन से चारित्र और तप इन दो आराधनाओं को सूचित किया है। पुन: कैसा है ? जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान को जानने वाला है। समास, स्थान, योनि, अवगाहना और कुलों के भेद को जीवस्थान कहते हैं। मिथ्यात्व आदि परिणामों के स्थान-पद को गुणस्थान कहते हैं और अन्वेषण के उपायभूत गति आदि मार्गणा के स्थान को मार्गणास्थान कहते हैं। इनके प्रत्येक के चौदह-चौदह भेद हैं अर्थात् जीवसमास चौदह हैं, गुणस्थान चौदह हैं और मार्गणास्थान भी चौदह हैं, इनके भेदों से तत्त्व को-जीव के स्वरूप को जो जानता है वह तत्त्ववित् कहलाता है। इस कथन से ज्ञान की आराधना को बतलाया है।

पुन: वह आत्मा कैसा है ?

वृद्धिंगत अभिनिवेश-श्रद्धान वाला है। वि-विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त क्षायिक रूप से परिणत है अभिनिवेश-सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा वह आत्मा है। इस कथन से दर्शनाराधना का निरूपण किया है। इस प्रकार से इन चार आराधनाओं से ही मोक्षमार्ग बन सकता है क्योंकि १सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है, ऐसा सूत्रकार का वचन है।

प्रश्न-सूत्र में रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है और आपने यहाँ पर आराधना चतुष्टय को मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया है, इसलिए विरोध आता है ?

उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि तप चारित्र में अंतर्भूत हो जाता है अत: वैसा प्रतिपादन संभव है। चारित्र ही कर्मनिर्जरा में हेतु होने से तपरूप से प्रतिपादित किया जाता है। वास्तव में चारित्र को छोड़कर तप नहीं है अन्यथा वह मोक्ष का कारण नहीं हो सकता है। बहिरंग तपश्चरण रत्नत्रय का साधन है और अंतरंग तपश्चरण तो चारित्रविशेषरूप है अतएव शास्त्र में उसका पृथक् निर्देश नहीं किया है।

प्रश्न-क्या करके विवृद्ध अभिनिवेश उत्पन्न होता है ?

[उत्तर-जीवादि द्रव्यों को अनुयुक्त करके-पूछ करके उत्पन्न होता है। ‘द्रवति द्रोष्यति अदुदु्रवत् इति द्रव्यं’ जो द्रवित होता है-परिणत होता है, होवेगा और होता था, वह द्रव्य है अथवा गुणपर्यय वाला द्रव्य है। इस द्रव्यलक्षण से लक्षित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन नाम वाले जीवादि द्रव्य होते हैं। निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगों से- प्रश्नों से तथा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ भेदों को प्राप्त हुए प्रश्नों से जीवादि द्रव्यों को जानना चाहिए।

उसी का स्पष्टीकरण करते हैं-

(निर्देश आदि का लक्षण)

क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है, जैसे-चेतना लक्षण वाला जीव है।

किसका है ? ऐसा पूछने पर ‘अपना है’ इस आधिपत्य का कथन करना स्वामित्व है।

किनके द्वारा ? ऐसा प्रश्न होने पर ‘अपने द्वारा’ इस प्रकार से करण का निरूपण करना साधन है।

किसमें ? ऐसा प्रश्न होने पर ‘अपने में’ ऐसे आधार का प्रतिपादन करना अधिकरण है।

कितने काल तक ? ऐसा प्रश्न होने पर ‘अनंत काल पर्यंत’ ऐसे काल का प्ररूपण करना स्थिति है।

कितने प्रकार ? ऐसा प्रश्न होने पर जीव चैतन्य सामान्य से एक प्रकार का है इस प्रकार से प्रकार का कथन करना विधान है।

इस प्रकार से निर्देश आदि छह अनुयोगों का व्याख्यान किया है। मध्यम रुचि वाले शिष्यों के अभिप्राय के निमित्त से ये अनुयोग संभव होते हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्यों के अभिप्राय से पुन: सत् आदि का व्याख्यान करते हैं।

(सत् आदि का लक्षण)

उनमें द्रव्य पर्याय, सामान्य, विशेष और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य में जो व्यापक है वह सत् है, ऐसा कथन करना सत् का प्ररूपण है, जैसे जीव हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, सासादन सम्यग्दृष्टि हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि हैं, देशसंयत हैं, प्रमत्तसंयत हैं, अप्रमत्तसंयत हैं, अपूर्वकरणसंयत हैं, अनिवृत्तिकरण बादरसांपराय संयत हैं, सूक्ष्मसांपराय संयत हैं, उपशांतकषाय छद्मस्थ वीतरागी हैं, क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतरागी हैं, सयोगीकेवली हैं, अयोगीकेवली हैं और शुद्धात्मा सिद्ध हैं इत्यादि।

भेद की गणना करना संख्या है। जैसे जीव अनंतानंत हैं, मिथ्यादृष्टि अनंतानंत हैं इत्यादि।

वर्तमान के निवास को क्षेत्र कहते हैं। जैसे जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग है, संख्यातवें भाग है अथवा सर्वलोक है इत्यादि। उसी त्रिकालविषयक निवास को स्पर्शन कहते हैं। जैसे जीव का सर्वलोक आदि स्पर्श है। उतने काल रहने को काल कहते हैं। जैसे गुणस्थान का आयामकाल अंतर्मुहूर्त आदि है।

विवक्षित गुणस्थान को छोड़कर गुणस्थानांतर को प्राप्त हुए को, पुन: उस गुणस्थान की प्राप्ति जितने काल में होती है उतना काल अंतर कहलाता है, इसे विरहकाल भी कहते हैं, यह अंतर्मुहूर्त आदि के प्रमाण से होता है।

आत्मा के परिणाम को भाव कहते हैं। ये औदयिक आदि हैं।

परस्पर में संख्या की विशेषता को अल्पबहुत्व कहते हैं। ये सत् आदि आठ अनुयोग कहलाते हैं।

पूर्व में इनका न्यास करके अर्थात् अर्थ स्वभाव, वचन स्वभाव और ज्ञानस्वभाव वाले भेद व्यवहार को पूर्व में करके। उनमें से अर्थस्वभाव वाले के भेद द्रव्य और भाव ऐसे दो होते हैं क्योंकि ये अर्थ के धर्म हैं। वचनात्मक नाम व्यवहार है और ज्ञानस्वरूप स्थापना व्यवहार है क्योंकि वह संकल्परूप है अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप होते हैं। इनमें से नाम निक्षेप वचनस्वरूप है, स्थापनानिक्षेप ज्ञानस्वरूप है और द्रव्य तथा भावनिक्षेप अर्थस्वरूप हैं। इनसे भी जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है। ये श्रुतार्पित-श्रुत-अनेकांत से विकल्पित हैं। ये चारों निक्षेप नय के अनुगत हैं अर्थात् नयों का-द्रव्य पर्याय रूप विषयों का अनुसरण करने वाले हैं और ये भेद के वेदन में-मुख्य गौणरूप विशेष के निर्णय में उपायभूत हैं-कारण हैं।

इन कारण भेदों से द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से विवक्षित धर्मों का विचार करके अर्थात् अनेकांतात्मक वस्तु के जो अस्तित्वादि अनंत धर्म हैं और व्यावहारिक हैं-हान, उपादान आदि प्रयोजन वाले हैं, उनको ज्ञाता के अभिप्रायरूप नयों के द्वारा प्रमेयरूप जीवादि पदार्थों को पहले जान करके। वे अर्थ अनेकांतात्मक हैं, अनेक अंत-सहभावी और क्रमभावी धर्म जिसमें पाये जाते हैं वह अनेकांत कहलाता है। उन अनेकांतात्मक जीवादि पदार्थों को श्रुत से-स्याद्वाद से जान करके श्रद्धान करते हैं क्योंकि ‘अनेकांत को प्रमाण से१’ जाना जाता है ऐसा वचन है। यहाँ पर संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के अभिप्राय के निमित्त से यह कहा गया है। यहाँ पर अभिप्राय यह हुआ है कि-

अनेकांतात्मक जीवादि पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सत् हैं इत्यादि को आगम से निश्चित करके पुन: संक्षेप रूप वाले ज्ञाता उन धर्मों की व्यवहार के लिए नैगम आदि नयों से परीक्षा करते हैं क्योंकि उनको उतने से ही तत्त्वों का बोध होना संभव है। पुन: मध्यम रुचि वाले शिष्य विशेष को जानने के लिए उपायभूत ऐसे नाम आदि निक्षेपों से अर्थ, वचन और ज्ञानरूप भेदों का न्यास करके-कथन करके निर्देश, स्वामित्व आदि अनुयोगों से प्रश्न करते हैं, समझते हैं क्योंकि उन लोगों को उतने विस्तार की आकांक्षा है तथा विस्तार रुचि वाले शिष्य जीवादि द्रव्यों में से प्रत्येक को सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगों से प्रश्न करके-समझ करके गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि भेदों से तत्त्व को जानते हैं।

इससे विशुद्ध अधिगम सम्यग्दर्शन से सहित होते हुए जीव शुक्लध्यानरूपी अंतरंग तप से संपूर्ण कर्मों का निर्मूलन करके विमुक्त होते हुए उस ज्ञान के फलरूप सुख का अनुभव करते हैं।

प्रश्न-इस प्रकार से प्रमाण, नय और निर्देश आदि का स्वरूप तो जान लिया गया है, निक्षेप क्या हैं ? सो अब प्रतिपादित कीजिए ?

उत्तर-जो जानने के लिए उपायभूत हैं वे निक्षेप कहलाते हैं, वे चार हैं-नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भावनिक्षेप। उनमें से जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया यह नाम हैं, जैसे-प्रतीहार इत्यादि। एक जीव अनेक जीव नाम जैसे (कावड़ी को ढ़ोने वाला कहार) काकावलिकावाही हार इत्यादि, अनेक जीव एक जीव नाम जैसे-आंदोलक इत्यादि। अनेक जीव अजीव नाम, जैसे-नगर इत्यादि। नाम को प्राप्त हुए द्रव्य में वह यह है, इस प्रकार के संकल्प से व्यवस्थापित की गई स्थापना है। उसके दो भेद हैं-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। उनमें मुख्यद्रव्य की आकृति को सद्भाव स्थापना कहते हैं जैसे-अर्हत्प्रतिमा आदि। तदाकार से शून्य असद्भाव स्थापना है जैसे-कौड़ी आदि में किसी की स्थापना करना आदि।

द्रव्यनिक्षेप के भी दो भेद हैं-आगम और नोआगम। उनमें से जो जीवादि के विषयक शास्त्र का ज्ञाता है किन्तु चिरकाल से दूसरों को प्रतिपादन आदि के उपयोग से रहित है ऐसा श्रुतज्ञानी आगमद्रव्य है। नोआगमद्रव्य के तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। उसमें जीवादि प्राभृत के ज्ञाता के शरीर के भी तीन भेद हैं-भूत, भविष्यत् और वर्तमान। भूत शरीर के भी तीन भेद हैं-च्युत, च्यावित और त्यक्त। उसमें समाधिमरण से छूटे हुए शरीर को त्यक्त कहते हैं। उसके भी तीन भेद हैं-प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्तप्रत्याख्यान।

अपने आयु के पूर्ण होने के निमित्त से छूटा हुआ शरीर च्युत कहलाता है। वेदना आदि के निमित्त से आयु के खंडित हो जाने से छूटा हुआ शरीर च्यावित कहलाता है।

नोआगमद्रव्य के भावी भेद को कहते हैं-गत्यंतर में स्थित हुआ जीव जो मनुष्यत्व आदि के अभिमुख है उसे भावी कहते हैं। कर्म और नोकर्म के भेद से तद्व्यतिरिक्त के भी दो भेद हैं। उसमें आत्मा को परतंत्रता के निमित्त से जो ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार का कर्म है वह कर्मतद्व्यतिरिक्त है। तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल परिणाम नोकर्म तद्व्यतिरिक्त है अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं इनमें से आदि के तीन शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाएं ही नोकर्म हैं। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक में तैजस का अंतर्भाव हो जाता है और विग्रहगति में कार्मण शरीर अंतर्भूत होता है।

भावनिक्षेप के भी आगम और नोआगम की अपेक्षा दो भेद हैं। उसमें जीवादिप्राभृत का ज्ञाता, जो कि उसमें उपयुक्त हुआ श्रुतज्ञानी है, वह आगमभाव जीव है। विवक्षित पर्याय से परिणत हुआ नोआगम जीव है।

प्रश्न-निक्षेप के अभाव में भी केवल प्रमाण और नयों में तत्त्वार्थ का स्वरूप जाना ही जाता है ?

उतर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ये निक्षेप अप्रकृत को निराकरण करने के लिए होते हैं और प्रकृत का प्ररूपण करने के लिए होते हैं। नामादि के अप्रकृत में प्रमाण और नय से जाने गये पदार्थ व्यवहार के लिए समर्थ नहीं होते हैं क्योंकि मुख्य और उपचार के विभाग से ही उनकी सिद्धि होती है और नामादि निक्षेपों के बिना वह मुख्य-उपचार रूप विभाग संभव नहीं है कि जिससे उनके अभाव में भी तत्त्वों का बोध हो सके अर्थात् निक्षेप के बिना भी तत्त्वों का बोध नहीं हो सकता है।

विशेषार्थ-यहाँ पर आचार्य ने चार आराधना के फल को बतलाया है। तब प्रश्न यह हो गया है कि सूत्रकारों ने रत्नत्रय को ही मोक्ष का मार्ग कहा है और चार आराधनाओं से मोक्षफल प्राप्ति का संकेत किया है, यह क्या बात है ? इस पर टीकाकार ने समाधान कर दिया है कि जहाँ रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है वहाँ पर चारित्र में ही तप आराधना गर्भित है और जहाँ चार आराधना को मोक्षमार्ग कहा है वहाँ केवल भेद विवक्षा ही है।

पुन: सम्यक्त्व के विषयभूत जीवादि पदार्थों को जानने के लिए जो उपाय है, उनका स्पष्टीकरण किया है। उनमें सबसे प्रथम निर्देश, स्वामित्व आदि छह अनुयोगों को बताया है अनंतर सत्, संख्या, क्षेत्र आदि आठ अनुयोगों को स्पष्ट किया है क्योंकि मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए निर्देश आदि छह प्रकार हैं, विस्तार रुचि वालों के लिए सत् आदि आठ प्रकार हैं। इसके बाद चार निक्षेपों से पदार्थों को जानने का उपदेश दिया है और प्रमाण तथा नयों से भी समझने को कहा है। यह संक्षेप रुचि वालों के लिए उपाय है। यहाँ पर उन चार निक्षेपों के प्रभेदों का अच्छा स्पष्टीकरण है। प्रश्न यह होता है कि संक्षेप रुचि वाले शिष्य प्रमाण और नयों से ही पदार्थों को समझ लेते हैं पुन: निक्षेपों की क्या आवश्यकता है ? इस पर आचार्य ने कहा है कि बिना निक्षेप के मुख्य और उपचार की व्यवस्था असंभव है तथा प्रकृत का प्ररूपण और अप्रकृत का निराकरण यह भी निक्षेप से ही होता है।