
सूरि :
तात्पर्यवृत्ति-जो मोक्ष के हेतुभूत रत्नत्रयरूप से होगा-परिणमन करेगा, वह भव्य है क्योंकि अभव्य को मुक्ति में अधिकार ही नहीं है। ऐसा भव्य जीव षट्द्रव्य के समुदायरूप लोक और उसके बाहर केवल आकाशरूप अलोक, इन दोनों की कला-विभाग अथवा लोक, अलोक तथा कला-जीवादि पदार्थ इनके अवलोकन में बल-शक्ति और प्रज्ञा-प्रकृष्ट ज्ञान है जिनके, ऐसा लोकालोक की कला को जानने की शक्ति और ज्ञान से सहित हुआ स्वयं-इंद्रियादि की सहायता के बिना अपने आत्मा के द्वारा, अकलंकों का जो पद है-आर्हंत्यपद है उसको प्राप्त होता हुआ जिन हो जाता है। प्रश्न-मुक्ति में जीव के ज्ञान का अभाव है, क्योंकि जीव ज्ञान स्वभाव से रहित है ? उत्तर-नहीं, मुक्ति में भी वह जीव बोद्धा है, ज्ञान स्वभाव वाला होने से जानने वाला है। प्रश्न-पूर्व में क्या करके जानता है ? उत्तर-पहले पंचपरमगुरु के निमित्त से अवधिभूत शब्द से-वर्ण, पद, वाक्यात्मक प्रयोग से जो अर्थ को-जीवादि वस्तु को विषय करने वाला है उन शब्दों से उस आगम को पढ़ करके और जान करके पुन: उस आगम के अर्थरूप जीवादि वस्तु का अभ्यास करके पुन:-पुन: भाषित करके-यहाँ शब्द से अर्थ को जानने के कथन से बौद्ध के कथन का निरसन किया है अर्थात् बौद्ध कहता है कि शब्द का विषय अन्यापोह है, यहाँ उसका निराकरण हो जाता है क्योंकि शब्द की अन्यापोह में प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रश्न-पुन: वे शब्द कैसे हैं ? उत्तर-अपभ्रंश रूप हैं, भ्रंश-लक्षणदोष-व्याकरण के दोष से अप-रहित हैं। इस कथन से ‘यो जागार’ इत्यादि वाक्यों की अप्रमाणता का प्रतिपादन किया है। प्रश्न-पुन: क्या करके वे ज्ञाता होते हैं ? उत्तर-पूर्व में मिथ्यात्वादि मल दोषों से रहित, इच्छा निरोधरूप बाह्याभ्यंतर तपश्चरणों से अर्हंत, सिद्ध आदि पंच परमेष्ठियों की आराधना करके ऐसे ज्ञानी होते हैं क्योंकि पंचपरमगुरु के चरण ही परम मंगल स्वरूप हैं। उनके गुण समूह का अनुस्मरण शास्त्र की परिसमाप्ति में सफलीभूत है। इस प्रकार से यहाँ परमागम के अभ्यास से स्वार्थ संपत्ति का कथन किया गया है। |