मुख्तार : - जिस शक्ति के द्वारा आत्मा पदार्थों को साकार जानता है, सो ज्ञान है ।
भुतार्थ का प्रकाश करने वाला ज्ञान होता है । अथवा सद्भाव के निश्चय करने वाले धर्म को ज्ञान कहते हैं ।
जाणइ तिकालविसए, दव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे ।
पच्चक्खं च परोक्खं, अणेण णाणं ति णं बेंति ॥गो.जी.२९९॥
अर्थ – जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत भविष्यत् वर्तमान काल संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं । इसके दो भेद हैं - प्रत्यक्ष, परोक्ष । बहिर्मुख चित्-प्रकाश को ज्ञान माना है । - अन्तर्मुख चित् (चैतन्य) दर्शन है । जो आलोकन करता है, वह आलोक या आत्मा हैं तथा वर्तन अर्थात् व्यापार सो वृत्ति है । आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति (व्यापार) सो आलोकन-वृत्ति या स्व-संवेदन है और वही दर्शन है । यहाँ पर 'दर्शन' शब्द से लक्ष्य का निर्देश किया है । अथवा प्रकाश-वृत्ति दर्शन है । 'प्रकाश' ज्ञान है । उस प्रकाश (ज्ञान) के लिए जो आत्मा का व्यापार सो प्रकाश-वृत्ति है और वही दर्शन है । विषय और विषयी के योग्य देश में होने की पूर्वावस्था दर्शन है ।
जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं ।
अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णदे समये ॥गो.जी.४८२॥
सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थों को अलग-अलग भेदरूप से ग्रहण नहीं करके जो सामान्य ग्रहण (आत्मग्रहण) अर्थात् स्व-रूप (निजरूप) मात्र का अवभासन होता है उसको परमागम में दर्शन कहा है । अथवा, सामान्य अर्थात् आत्मा के ग्रहण को दर्शन कहते हैं । - जो स्वाभाविक भावों के आवरण के विनाश होने से आत्मीक शान्तरस अथवा आनन्द उत्पन्न होता है वह सुख है । सुख का लक्षण अनाकुलता है । स्वभाव प्रतिघात का अभाव सो सुख है । मोहनीय-कर्म के उदय से इच्छारूप आकुलता उत्पन्न होती है सो ही दुख है । मोहनीय-कर्म के नाश होने से आकुलता का भी अभाव हो जाता है और आत्मीक परम-आनन्द उत्पन्न होता है, वही सुख है ।
- वीर्य का अर्थ शक्ति है । वीर्य, बल और शुक्र ये सब एकार्थक शब्द है । जीव की शक्ति को वीर्य कहते हैं । आत्मा में अनन्त वीर्य है किन्तु अनादि काल से उस अनन्त शक्ति को वीर्यान्तराय कर्म ने घात रखा है । उसके क्षयोपशम से कुछ वीर्य प्रकट होता है ।
- जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श है । कोमल, कठोर, हल्का, भारी, ठंडा, गर्म, स्निग्ध, रूक्ष के भेद से स्पर्श आठ प्रकार का है । और
- जो स्वाद का प्राप्त होता है वह रस है । तीखा, कडुआ, खट्टा, मीठा, और कसैला के भेद से रस पाँच प्रकार का है ।
- जो सूंघा जाता है वह गन्घ है । सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से दो प्रकार की गन्ध है ।
- जो देखा जाता है वह वर्ण है । काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद से वर्ण पांच प्रकार का है । ये स्पर्श आदि के मूल भेद हैं । वैसे प्रत्येक के संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं ।
- जीव और पुद्गलों को गमन में सहकारी होना गति-हेतुत्व है ।
- जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहकारी होना स्थिति-हेतुत्व है ।
- समस्त द्रव्यों को अवकाश देना अवगाहन-हेतुत्व है ।
- समस्त द्रव्यों के वर्तन में सहकारी होना वर्तना-हेतुत्व है ।
- चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व का स्वरूप सूत्र ९ की टीका में कहा जा चुका है ।
चेतनत्व सर्व जीवों में पाया जाता है इसलिये इसको सामान्य गुणों में कहा है । किन्तु पुद्गल आदि द्रव्यों में नहीं पाया जाता इसलिये इसे विशेष गुणों में कहा है । अचेतनत्व पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों में पाया जाता है इसलिये सामान्य गुणों में कहा है, किन्तु जीव-द्रव्य में नहीं पाया जाता इसलिये विशेष गुणों में भी कहा है । मूर्तत्व सर्व पुद्गल द्रव्यों में पाया जाता है इसलिये सूत्र ९ में सामान्य गुणों में कहा है, किन्तु जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में नहीं पाया जाता है इसलिये विशेष गुण कहा है । इसी प्रकार अमूर्तत्व गुण जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों में पाया जाता है इसलिये सूत्र ९ में सामान्य गुण कहा है किन्तु पुद्गल-द्रव्य में नहीं पाया जाता इसलिए विशेष-गुण कहा है । (देखो सूत्र १४) प्राकृत नयचक्र में इन विशेष गुणों का कथन निम्न प्रकार है --
णाणंदंसण सुह सत्ति रूवरस गंध फास गमणठिदी ।
वट्टणगाहणहेउमुतममुत्तं खु चेदणिदरं च ॥१३॥
अट्ठ चदु णाणदंसणभेया सत्तिसुहस्स इह दो दो ।
वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायव्वा ॥प्रा.न.च.१४॥
अर्थ – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, गमन-हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, वर्तना-हेतुत्व, अवगाहन-हेतुत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, ये द्रव्यों के विशेष गुण हैं । ज्ञान के आठ, दर्शन गुण के चार, वीर्य और सुख के दो-दो, रूप / वर्ण और रस के पांच, गन्ध के दो और स्पर्श के आठ भेद जानने चाहिए ।
क्षयोपशमिकी शक्तिः क्षायिकीं चेति शक्तेर्द्वौ भेदौ ॥न.च.वृ./१४.टि.॥
अर्थ – शक्ति के दो भेद हैं - क्षायोपशमिकी शक्ति और क्षायिकी शक्ति ।
सुख दो प्रकार का - इन्द्रिय-जनित और अतीन्द्रिय सुख ।
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