+ जीव की स्‍वभाव-गुण-व्‍यंजन-पर्याय -
स्‍वभावगुणव्‍यंजनपर्याया अनन्‍तचतुष्‍टयरूपा जीवस्‍य ॥22॥
अन्वयार्थ : अनन्‍त-ज्ञान, अनन्‍त-दर्शन, अनन्‍त-सुख और अनन्‍त-वीर्य इन अनन्‍त-चतुष्‍टयरूप जीव की स्‍वभाव-गुण-व्‍यंजन-पर्याय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

ज्ञानावरण-कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से अनन्‍त-ज्ञान, दर्शनावरण-कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से अनन्‍त-दर्शन, मोहनीय-कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से अनन्‍त-सुख, अन्‍तराय-कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से अनन्‍त-वीर्य, इस प्रकार चार घातिया-कर्मों के क्षय से अनन्‍त-चतुष्‍टयरूप जीव की स्‍वभाव-गुण-व्‍यंजन-पर्याय उत्‍पन्‍न होती है । ,
  • इन अनन्‍त-चतुष्‍टय का कभी नाश नहीं होगा, अर्थात् चिरकाल-स्‍थायी है, इसलिये यह व्‍यंजन-पर्याय है ।
  • कर्मोपाधि-रहित पर्याय है अत: स्‍वभाव-पर्याय है ।
  • ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य गुणों की पर्याय है अत: गुण-पर्याय है ।
कहा भी है --

णाणं दंसण सुह वीरियं च जं उहयकम्‍मपरिहीणं ।
तं सुद्धं जाण तुमं जीवे गुणपज्‍जय सव्‍वं ॥न.च.२६॥
अर्थ – दोनों प्रकार के कर्मों से रहित शुद्ध-जीव के अनन्‍त-ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य जीव की स्‍वभाव-गुण-पर्याय है ।