मुख्तार :
ज्ञानावरण-कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त-ज्ञान, दर्शनावरण-कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त-दर्शन, मोहनीय-कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त-सुख, अन्तराय-कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त-वीर्य, इस प्रकार चार घातिया-कर्मों के क्षय से अनन्त-चतुष्टयरूप जीव की स्वभाव-गुण-व्यंजन-पर्याय उत्पन्न होती है । ,
णाणं दंसण सुह वीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं ।
अर्थ – दोनों प्रकार के कर्मों से रहित शुद्ध-जीव के अनन्त-ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य जीव की स्वभाव-गुण-पर्याय है ।
तं सुद्धं जाण तुमं जीवे गुणपज्जय सव्वं ॥न.च.२६॥ |