+ पुद्गल की विभाव-गुण-व्‍यंजनपर्याय -
रसरसान्‍तरगन्धगन्धान्‍तरादिविभावगुणव्‍यंजनपर्याया: ॥24॥
अन्वयार्थ : द्वि-अणुक आदि स्‍कन्‍धों में एक वर्ण से दूसरे वर्णरूप, एक रस से दूसरे रसरूप, एक गंध से दूसरे गंधरूप, एक स्‍पर्श से दूसरे स्‍पर्श रूप होने वाला चिरकाल-स्‍थायी-परिणमन पुद्गल की विभाव-गुण-व्‍यंजन-पर्याय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

द्वि-अणुक आदि स्‍कंध पुद्गल-द्रव्‍य की अशुद्ध-पर्याय है । इस अशुद्ध पुद्गल-द्रव्‍य के गुणों में जो परिणमन होता है वह विभाव-गुण-पर्याय है । यदि वह परिणमन क्षणक्षयी है तो वह विभाव-गुण-अर्थ-पर्याय है और यदि वह परिणमन चिरकाल स्‍थायी है तो वह विभाव-गुण-व्‍यंजन-पर्याय है । इसी बात को श्री जयसेन आचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १६ की टीका में कहा है --
पुद्गलस्‍य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्‍कंधेषु वर्णान्‍तरादिपरिणमनरूपा: । विभावव्‍यंजनपर्यायाश्‍च पुद्गलस्‍य द्वयणुकादिस्‍कंधेष्‍वेव चिरकालस्‍थायिनो सर्वद्रव्‍याणां कथिता: ॥पं.का.१६.टी.॥