मुख्तार :
टिप्पण में आचारसार तीसरी अध्याय की गाथा १३ उद्घृत की है उसका यह अभिप्राय है कि -- परमाणु पुद्गल का ऐसा अवयव (टुकड़ा) है, जो भेदा नहीं जा सकता अर्थात् परमाणु के टुकड़े नहीं हो सकते, इसलिये पुद्गल परमाणु अविभागी है । उस पुद्गल परमाणु में स्निग्घ या रूक्ष गुण के कारण परस्पर बंधने की शक्ति रहती है । परस्पर बंध हो जाने पर बहु-प्रदेशी हो जाता है । अत: प्रचय शक्ति के कारण यह परमाणु भी कायवान् है । वह पुद्गल स्कंघ के भेद से उत्पन्न होता है । वह परमाणु चतुरस्र है अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई वाला है और इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है । 'अएव: परिमण्डला:' अर्थात् परमाणु गोल होता है । सबसे जघन्य अवगाहना गोल होती है । जीव की भी समय जघन्य अवगाहना पर्तुल-आकार अर्थात् गोल होती है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार में पुद्गल परमाणु का कथन इस प्रकार किया है - अत्तादि अतमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं ।
अर्थ – जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है और जिसको इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं ऐसा जो अविभागी (विभाग रहित) पुद्गल द्रव्य है उसे परमाणु समझो ।जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं विश्राणाहि ॥नि.सा.२६॥ 'भेदादणु' ॥त.सू.५/२७॥ इस सूत्र द्वारा यह बतलाया गया है कि परमाणु स्कंध के भेद से उत्पन्न होता है, अत: अनादि काल से अब तक परमाणु की अवस्था में ही रहने वाला कोई भी परमाणु नहीं है ।अपदेसो परमाणू पदेसमेत्ते द समयसद्दो जो ।
अर्थ – परमाणु जो कि अप्रदेश है, प्रदेशमात्र है और स्वयं अशब्द है, वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ द्विप्रदेशादिपने का अनुभव करता है ।णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि ॥प्र.सा.१६३॥ सव्वेसिं खंदाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू ।
अर्थ – सभी स्कन्धों का जो अंतिम भाग है, उसे परमाणु जानो। वह शाश्वत, अशब्द, एक अविभागी और मूर्तिभव (मूर्त रूप से उत्पन्न होने वाला) जानना चाहिए।सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो ॥पं.का.७७॥ एयपदेसो वि अणू, णाणाखंधप्पदेसदो होदि ।
अर्थ – एकप्रदेशी भी परमाणु अनेक स्कन्धरूप बहुप्रदेशी हो सकता है, इस कारण सर्वज्ञदेव ने पुद्गल परमाणु को उपचार से काय कहा है ।बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सव्वण्हू ॥वृ.द्र.सं.२६॥ परमाणु निरवयव भी है और सावयव भी है । द्रव्यार्थिक नय का अवलम्बन करने पर दो परमाणुओें का कथंचित् सर्वात्मना समागम होता है, क्योंकि परमाणु निरवयव होता है । यदि परमाणु के अवयव होते है ऐसा माना जाय तो परमाणु को अवयवी होना चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि अवयव के विभाग द्वारा अवयवों के संयोग का विनाश होने पर परमाणु का अभाव प्राप्त होता है, पर ऐसा है नहीं, क्योंकि परमाणु रूप कारण का अभाव होने से सब स्थूल कार्यो (स्कधों) का भी अभाव प्राप्त होता है । परमाणु के कल्पित्तरूप अवयव होते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है । इसलिए परमाणु को निरवयव होना चाहिए । निरवयव परमाणुओं से स्थूल कार्य की उत्पत्ति नहीं बनेगी, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि निरवयव परमाणुओं के सर्वास्मना समागम से स्थूल कार्य (स्कंध) की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता । पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन करने पर दो परमाणुओं का कथंचित् एकदेशेन समागम होता है । परमाणु के अवयव नहीं होते, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उनके उपरिम, अघस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणु का ही अभाव प्राप्त होता है । ये भाग कल्पित्त रूप होते है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु में ऊर्ध्वभाग अधोमान, मध्यमभाग तथा उपरिमोपरिमभाग कल्पना के बिना भी उपलब्ध होते हैं । परमाणु के अवयव है इसलिये उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो सब वस्तुओं के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । जिनका भिन्न-भिन्न प्रमाणों से ग्रहण होता है और जो भिन्न-भिन्न दिशा वाले हैं वे एक हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है । अवयवों से परमाणु नहीं बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवों के समूहरूप ही परमाणु दिखाई देता है । अवयवों के संयोग का विनाश होना चाहिये यह भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनादि संयोग के होने पर उसका विनाश नहीं होता । इस प्रकार अविभागी पुद्गल-परमाणु द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन से निरवयव है और पर्यायार्थिक नय से सावयव है । पुद्गल परमाणु निरवयव ही है, ऐसा एकान्त नहीं है । द्वि-अणुक आदि स्कंध कार्यो का उत्पादक होने से पुद्गल-परमाणु स्यात् कारण है, स्कंध-भेद से उत्पन्न होता है, अतः स्यात् कार्य है । परमाणु से छोटा कोई भेद नहीं है, अतः स्यात् अन्त्य है, प्रदेश-भेद न होने पर भी गुणादि-भेद होने के कारण परमाणु अन्त्य नहीं भी है । सूक्ष्म परिणमन होने से स्यात् सूक्ष्म है और स्थूल कार्य की उत्पत्ति की योग्यता रखने से स्यात् स्थूल भी है । द्रव्यता नहीं छोड़ता, अतः स्यात् नित्य है, स्कंध-पर्याय को प्राप्त होता है और गुर्णो का विपरिणमन होने से स्यात् अनित्य है । अप्रदेशत्व की विवक्षा में एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला है, अनेक प्रदेशी स्कंधरूप परिणमन की शक्ति होने से अनेक रस आदि वाला भी है । स्कंधरूप कार्य-लिंग से अनुमेय होने के कारण स्यात् कार्यलिंग है और प्रत्यक्ष-ज्ञान का विषय होने से कार्यलिंग नहीं भी है । इस प्रकार परमाणु के विषय में अनेकान्त है । यदि यह कहा जाय कि परमाणु अनादिकाल से अणु रहता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि परमाणु अपने अणुत्व को नहीं छोड़ता तो उससे स्कंधरूप कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्कंध अवस्था में परमाणु अणुरूप से नहीं रहता है किन्तु अणुत्व को छोड़कर स्कंधत्व को प्राप्त हो जाता है । पुद्गल परमाणु-अवस्था में संश्लेष-सम्बन्ध से रहित है, अतः परमाणु अवस्था शुद्ध है, इसीलिये परमाणु स्वभाव-पर्याय है । परमाणु किसी गुण की पर्याय नहीं है अतः द्रव्य-पर्याय है । परमाणु-रूप पर्याय चिरकाल-स्थायी भी है इसलिये परमाणु व्यंजन-पर्याय है । अतः परमाणु को पुद्गल की स्वभाव-द्रव्य-व्यंजन-पर्याय कहा गया है । |