मुख्तार :
तीखा, चरपरा, कसायला, खट्टा, मीठा इन पांच रसों में से एक काल में एक रस रहता है । शुक्ल, पीत, रक्त, काला, नीला इन पांच वर्णो में से एक वर्ण एक काल में रहता है । सुगन्ध, दुर्गन्ध इन दो प्रकार की गंध में से कोई एक गंध एक काल में रहती है । शीत व उष्ण स्पर्श में से कोई एक, तथा स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श में से कोई एक, इस प्रकार दो स्पर्श एक काल में परमाणु में रहते हैं । अर्थात् शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण स्निग्ध, उष्ण-रूक्ष, स्पर्श के इन चार युगलों में से कोई एक युगल एक काल में एक परमाणु में रहता है । शीत-उष्ण ये दोनों स्पर्श या स्निग्घ-रूक्ष ये दोनों स्पर्श एक कास में एक परमाणु में नहीं रह सकते, क्योंकि ये परस्पर में विरूद्ध हैं । एयरसवण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसद्दं ।
अर्थ – जिसमें कोई एक रस, कोई एक वर्ण, कोई एक गंध व दो स्पर्श हों, जो शब्द का कारण हो, स्वयं शब्द रहित हो, जो स्कंध से जुदा हो, उस पुद्गल द्रव्य को परमाणु कहते हैं ।खंदंतरिदं दव्वं परमाणु तं वियाणाहि स्कंदांतरित ॥पं.का.८१॥ इस प्रकार पुद्गल द्रव्य की परमाणु रूप शुद्ध-पर्याय में वर्ण, गंध व रस गुणों की एक एक पर्याय होती है तथा स्पर्श-गुण की परस्पर अविरूद्ध दो पर्यायें होती है । वे स्वभाव गुण पर्यायें है । वे पर्यायें चिरकाल तक भी रहती है, अतः व्यंजन-पर्यायें हैं । अर्थात् पुद्गल-परमाणु में वर्ण, गंध, रस व स्पर्श गुणों की चिरकाल तक रहने वाली पर्यायें, पुद्गल की स्वभाव-गुण-व्यंजन पर्यायें हैं । ॥ इति व्यंजन-पर्याय ॥
अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्याया: प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥त.अनु./११२॥
अर्थ – अनादि-अनन्त द्रव्य में अपनी अपनी पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं ॥१॥ धर्माधर्मनभः काला अर्थ-पर्यायगोचरा: ।
धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य और काल-द्रव्य इन चारों द्रव्यों में अर्थ पर्याय ही होती है किन्तु इनसे भिन्न जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों में व्यंजन पर्यायें भी होती हैं ॥२॥व्यंजनेन तु सम्बद्धौ द्वावन्यौ जीव पुद्गलौ ॥२॥ विशेषार्थ गाथा १- द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन से द्रव्य नित्य है -- न उत्पन्न होता है और न विनष्ट होता है अर्थात् अनादि-अनिधन है, सत् स्वभाव वाला है । कहा भी है -- उप्पत्ती य विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो ।
अर्थ – द्रव्य का उत्पाद-विनाश नहीं है, सद्भाव है। विनाश, उत्पाद और ध्रुवता को उसकी ही पर्यायें करती हैं ।विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ॥पं.का.११॥ द्रव्यस्य.....त्रिकालावस्थायिनोऽनादिनिधनस्य न समुच्छेदसमुदयौ युक्तौ । ..........त्ततो द्रव्यार्थार्पणायामनुत्पादमनुच्छेदं सत् स्वभावमेव द्रव्यं ॥पं.का.११.टी.अ.आ.॥
अनादिनिधनस्य द्रव्यस्य द्रव्यार्थिकनयेनोत्पत्तिश्च विनाशो वा नास्ति ॥पं.का.११.ता.वृ.॥
यद्यपि द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य त्रिकाल अवस्थायी अनादि-अनिधन है, उत्पाद-व्यय से रहित है तथापि पर्यायार्थिक नय के अवलम्बन से उस अनादि-अनिधन द्रव्य में प्रतिक्षण पर्यायें उत्पन्न होती हैं, विनष्ट होती हैं, क्योंकि द्रव्य अनित्य है और उत्पाद.व्यय सहित है । कहा भी है --उप्पज्जंति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स ।
अर्थ – पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते है तथा द्रवयार्थिक नय की अपेक्षा वे सदा अविनष्ट और अनुत्पन्न स्वभाव वाले हैं ।दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविणट्ठं ॥ज.ध.१/२४८॥ इस प्रकार दोनों नयों के अवलम्बन से वस्तु-स्वरूप की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि वस्तु-स्वरूप अनेकान्तमयी है । इन दोनों नयों में से किसी एक नय का एकान्त पक्ष ग्रहण करने से संसारादि का अभाव हो जायगा । कहा भी है -- ण य दव्वट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स ।
अर्थ – द्रव्यार्थिक नय के पक्ष में संसार नहीं बन सकता है । उसी प्रकार सर्वथा पर्यायार्थिक नय के पक्ष में भी संसार नहीं बन सकता है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नय निस्पव्यक्तिवादी है और पर्यायार्थिक नय उच्छेदवादी है ।सासयवियत्तिवायी जम्हा उच्छेदवादीया ॥ज.ध.१/२४९॥ विशेषार्थ गाथा २- धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य और काल-द्रव्य ये चारों द्रव्य सर्वदा शुद्ध हैं, क्योंकि कभी बंध को प्राप्त नहीं होते अतः इन चारों द्रव्यों में अगुरूलघुगुण के कारण पतिक्षण षट्गुणी वृद्धि-हानि रूप अर्थ-पर्याय होती रहती है, किन्तु बंध के सम्बन्ध से होने वाली किया निमित्तक पर्यायें अथवा व्यंजन-पर्यायें नहीं होती हैं । जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य बंध को प्राप्त होने के कारण अशुद्ध होते हैं अतः इनमें क्रिया-निमित्तक तथा व्यंजन पर्यायें भी होती है । कहा भी है - परिणामजुदो जीओ गइगमणुवलंभओ असंदेहो ।
अर्थ – जीव परिणामयुक्त है अर्थात् परिणामी है, क्योंकि उसका स्वर्ग, नरक आदि गतियों में निःसन्देह गमन पाया जाता है । इसी प्रकार पाषाण मिट्टी आदि स्थूल पर्यायों के परिणमन देखे जाने से पुद्गल को परिणामी जानना चाहिये । धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य ये चारों द्रव्य व्यंजन-पर्याय के अभाव से यद्यपि अपरिणामी कहलाते हैं तथापि अर्थ-पर्याय की अपेक्षा ये द्रव्य परिणामी हैं, क्योंकि अर्थ-पर्याय सभी द्रव्यों में होती है ।तह पुग्गलो य पाहणपहुइ-परिणामदंसणा णाउं ॥२६॥ वंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अत्थपरिणामभासिय सव्वे परिणामिणो अत्था ॥व.श्रा.२७॥ धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत्। क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः। उत्पादाभावाच्च व्यायाभावइति। अतः सर्वद्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति। तन्न; किं कारणम्। अन्यथोपपत्तेः। क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते। तद्यथा द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।.....षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च ॥स.सि.५/७॥
प्रश्न – यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन-सकता, क्योंकि घटादिक का क्रिया-पूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नहीं बनने से इनका व्यय भी नहीं बनता । अतः 'सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं', इस कल्पना का व्याघात हो जाता है? उत्तर – नहीं, क्योंकि इनमें उत्पादादि तीन अन्य प्रकार से बन जाते हैं । यद्यपि इन धर्मादि द्रव्यों में क्रिया-निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकार से उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकार का है -- स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद । तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से (स्वनिमित्तक) होता है । इस प्रकार धर्मादि चार द्रव्यों में स्वभाव अर्थ-पर्याय होती है किन्तु जीव और पुद्गल में व्यंजन-पर्यायें भी होती हैं । ॥ इति पर्यार्याधिकार ॥
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