मुख्तार :
पहिले सूत्र ६ व ७ में द्रव्य का लक्षण 'सत्' तथा 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' कह चुके हैं फिर भी यहाँ प्रकारान्तर से द्रव्य का लक्षण कहा गया है । द्रव्य का गुण और पर्यायों से कथंचित् भेद है इसलिये सूत्र में 'मतुप्' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है । गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी होती हैं । कहा भी है -- गुण इदि दव्वविहाणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो ।
अर्थ – द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को विशेष गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं । द्रव्य इन दोनों से युक्त होता है । तथा वह अयुत्तसिद्ध और नित्य होता है । अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय से अभिन्न होता है ।तेहि अणूणं दव्वं अजुदपसिद्धं इवे णिच्चं ॥ एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से जुदा होता है वह विशेष गुण है । इस गुण के द्वारा द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि भेदक विशेष गुण न हो तो द्रव्य में सांकर्य हो जाय । सूत्र ६, ७ व २७ के द्वारा द्रव्य का लक्षण तीन प्रकार कहा गया है । द्रव्य के इन तीन लक्षणों में से किसी एक लक्षण का कथन करने पर शेष दोनों लक्षण भी अर्थ से ग्रहण हो जाते है । जैसे नित्य-अनित्य स्वभाव वाले 'सत्' कहने से नित्यरूप ध्रौव्य और अनित्यरूप उत्पाद-व्यय का अथवा नित्य-रूप गुण का और अनित्यरूप पर्याय का ग्रहण हो जाता है । इस प्रकार इन तीनों लक्षणों में कोई भेद या अन्तर नहीं है, मात्र विवक्षाभेद है । |