स्वभावाः कथ्यन्ते-अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः नित्यस्वभावः अनित्यस्वभावः एकस्वभावः, अनेकस्वभावः भेदस्वभावः अभेदस्वभावः भव्यस्वभावः अभव्यस्वभावः परमस्वभावः एते द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः चेतनस्वभावः अचेतनस्वभावः मूर्तस्वभावः अमूर्तस्वभावः एक-प्रदेशस्वभावः अनेकप्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः शुद्ध-स्वभावः अशुद्धस्वभावः उपचरितस्वभावः एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः ॥28॥
अन्वयार्थ : स्वभावों का कथन किया जाता है -- १. अस्ति-स्वभाव, २. नास्ति-स्वभाव, ३. नित्य-स्वभाव, ४. अनित्य-स्वभाव, ५. एक-स्वभाव,६. अनेक-स्वभाव, ७. भेद-स्वभाव, ८ अभेद-स्वभाव, ९ भव्य-स्वभाव, १०. अभव्य-स्वभाव, ११. परम -- स्वभाव ये ग्यारह, द्रव्यों के सामान्य स्वभाव हैं; १. चेतन-स्वभाव, २. अचेतन-स्वभाव, ३. मूर्त-स्वभाव, ४. अमूर्त-स्वभाव, ५. एकप्रदेश-स्वभाव, ६. अनेकप्रदेश-स्वभाव, ७. विभाव-स्वभाव, ८. शुद्ध-स्वभाव, ९. अशुद्ध-स्वभाव, १०. उपचरित-स्वभाव -- ये दस, द्रव्यों के विशेष स्वभाव हैं ।
मुख्तार
मुख्तार : द्रव्यों के स्वरूप को स्वभाव कहते है । तत्काल पर्याय को प्राप्त वस्तु भाव कहलाती है । अथवा वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते है ।
प्रश्न – गुणाधिकार कहा जा चुका है फिर स्वभाव अधिकार को पृथक् कहा जा रहा है । इसमें क्या रहस्य है ?
उत्तर – जो गुण है वह गुणी में ही प्राप्त होते है ।
प्रश्न – गुण गुणी में किस प्रकार प्राप्त होते है ?
उत्तर – गुण गुणी में अभेद है इसलिये गुण गुणी में ही प्राप्त होते हैं । स्वभाव गुण में भी प्राप्त होते हैं और गुणी में भी प्राप्त होते हैं ।
प्रश्न – स्वभाव गुण और गुणी में किस प्रकार प्राप्त होते हैं ?
उत्तर – गुण और गुणी अपनी अपनी पर्याय से परिणमन करते हैं । जो परिणति अर्थात् पर्याय है वह ही स्वभाव है । गुण और स्वभाव में यह विशेषता है । इसलिये स्वभाव का स्वरूप पृथक् लिखा गया है । - जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, उस अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होना अस्ति-स्वभाव है, जैसे अग्नि अपने दाह स्वभाव से कभी च्युत नहीं होती । (आ.प.-१०६)
- पर-स्वरूप नहीं होने के कारण नास्ति-स्वभाव है । (सूत्र १०७)
- अपनी अपनी नाना पर्यायों में 'यह वही है' इस प्रकार द्रव्य का हमेशा सद्भाव पाया जाना नित्य-स्वभाव है। (सूत्र १०८)
- उस द्रव्य का अनेक पर्याय रूप परिणत होने से अनित्य-स्वभाव है । (सूत्र १०७)
- सम्पूर्ण स्वभावों का एक आधार होने से एकस्वभाव है । (सूत्र ११०)
- एक ही द्रव्य के अनेक स्वभावों की उपलब्धि होने से अनेकस्वभाव है । (सूत्र १११)
- गुण गुणी आदि में संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भेद होने से भेद-स्वभाव है । (सूत्र ११२)
- गुण-गुणी आदि में प्रदेश भेद नहीं होने से अथवा एक स्वभाव होने से अभेद-स्वभाव है । (सूत्र ११३)
- भाविकाल में आगे की (भावि) पर्यायों के होने योग्य है अथवा अपने स्वरूप से परिणमन करने योग्य है अतः भव्य-स्वभाव है । (सूत्र ११४)
- काल-त्रय में भी पीछे की (भूत) पर्यायाकार होने के अयोग्य है अथवा पर-द्रव्य स्वरूपाकार होने के अयोग्य है अतः अभव्य-स्वभाव है । (सूत्र ११५)
- पारिणामिक भाव की प्रधानता से परम-स्वभाव है । (सूत्र ११६)
ये ग्यारह, सामान्य स्वभाव हैं । विशेष दस स्वभावों में से १. चेतन-स्वभाव, २. अचेतन-स्वभाव, ३. मूर्त-स्वभाव, ४. अमूर्त-स्वभाव, इन चार स्वभावों की व्याख्या सूत्र ९ के विशेषार्थ में हो चुकी है । शेष छह विशेष स्वभावों की व्याख्या निम्न प्रकार है -- - अखण्डपने की अपेक्षा एकप्रदेश-स्वभाव है ।
- भेदपने की अपेक्षा अनेक-प्रदेश-स्वभाव है ।
- स्वभाव से अन्यथा होना विभाव-स्वभाव है । (सूत्र १२१)
- कैवल्य अर्थात् शुद्ध भाव को शुद्ध-स्वभाव कहते हैं । (सूत्र १२२)
- शुद्ध-स्वभाव से विपरीत अशुद्ध-स्वभाव है । (सूत्र १२२)
- स्वभाव का अन्यत्र उपचार करना उपचरित-स्वभाव है, जैसे मार्जार (बिलाव) को सिंह कहना । वह उपचरित स्वभाव दो प्रकार का है १. कर्मज, २. स्वाभाविक । जीव के मूर्तत्व और अचेतनत्व उपचरित-कर्मज-स्वभाव हैं । सिद्धों के सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता स्वाभाविक-उपचरित-स्वभाव है, क्योंकि अनुपचरित नय से जीव के अमूर्त व चेतन स्वभाव हैं और सिद्ध आत्मज्ञ हैं । (सूत्र १२३-१२४)
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