+ जीव और पुद्गल के भावों की संख्‍या -
जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः ॥29॥
अन्वयार्थ : जीव में और पुद्गल में उपर्युक्‍त इक्‍कीस (११ सामान्‍य और १० विशेष) स्‍वभाव पाये जाते है ॥३५॥

  मुख्तार 

मुख्तार :

जीव में इक्‍कीस भाव बतलायें गये हैं जिससे स्‍पष्‍ट हो जाता है कि जीव में अचेतन-स्‍वभाव और मूर्त-स्‍वभाव भी है । इसी प्रकार पुद्गल में भी इक्‍कीस स्‍वभाव कहे गये हैं जिससे स्‍पष्‍ट है कि पुद्गल में चेतन और अमूर्त स्‍वभाव भी हैं ।

शंका – छह द्रव्‍यों में जीव चेतन स्‍वभाव वाला और शेष पांच द्रव्‍य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल-द्रव्‍य ) अचेतन स्‍वभाव वाले हैं । यदि जीव में भी अचेतन स्‍वभाव मान लिया जायगा तो जीव में और अन्‍य पाँच द्रव्‍यों में कोई अन्‍तर नहीं रहेगा ?

समाधान –
जीव में अचेतन-धर्म दो अपेक्षा से कहा गया है ।
  • जीव में अनन्‍त गुण हैं । उनमें से चेतन गुण तो चेतनरूप है, अन्य गुण चेतनरूप नहीं हैं, क्‍योंकि एक गुण में दूसरा गुण नहीं होता है ।

    द्रव्‍याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥त.सू.५/४॥
    इस सूत्र में गुण का लक्षण बतलाते हुये जो 'निर्गुण' शब्‍द दिया गया है उससे यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि एक गुण अन्‍य गुणों से रहित होता है । यदि चेतनगुण के अतिरिक्‍त अन्‍यगुणों को भी चेतनरूप मान लिया जाय तो संकर दोष आ जायगा अथवा चेतन के अतिरिक्‍त अन्‍यगुणों के अभाव का प्रसंग आ जायगा । इसलिये जीव में चेतनगुण के अतिरिक्‍त अन्‍य गुण चेतन रूप नहीं है अर्थात् अचेतन हैं । श्री १०८ अकलंक देव ने स्‍वरूप सम्‍बोधन में कहा भी है --

    प्रमेयत्‍वादिभिर्धर्मैरचिदात्‍मा चिदात्‍मकः ।
    ज्ञानदर्शनतस्तस्‍माच्‍चेत्तनाचेतनात्‍मकः ॥स्व.सं.३॥
    अर्थ – प्रमेयत्‍व आदि धर्मों की अपेक्षा आत्‍मा अचित् है और ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा से चिदात्‍मक है । अतएव आत्‍मा चेतनात्‍मक भी है और अचेतनात्‍मक भी है ।
  • जीव अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है । उन कर्मों ने जीव का चेतनगुण घात रखा है । कहा भी है -

    का वि अउव्‍वा दीसदि पुग्‍गल-दव्‍वस्‍स एरिसी सत्ती ।
    केवल-णाणसद्दावो विणासिदो जाइ जीवस्‍स ॥का.अ.२११॥
    अर्थ – पुद्गल-द्रव्‍य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है, जिससे जीव का केवलज्ञान-स्‍वभाव भी नष्‍ट हो जाता है ।

    इस प्रकार जितने अंशों में चेतनगुण का घात हो रहा है, उतने अंशों में अचेतनभाव है । जीव के पांच स्‍वतत्त्व-भावों में से एक औदयिक-भाव है, जिसके इक्‍कीस भेदों में से एक अज्ञान (अचेतन) भी भेद है । कहा भी है -

    औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्‍च जीवस्‍य स्‍वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥त.सू.२/१॥ गतिकषायलिग्‍ङमिथ्‍यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध-लेश्‍याश्‍चतुश्‍चतुस्‍त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥त.सू.२/६॥


    इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में भी अज्ञान (अचेतन) भी जीव का स्‍वतत्त्व भाव कहा गया है । क्‍योंकि जीव का यह अचेतन-भाव द्रव्‍य-कर्मों के सम्‍बन्‍ध से होता है और पौद्गलिक कर्म जीव से भिन्‍न द्रव्‍य हैं, इसलिये असद्भूत व्‍यवहारनय की अपेक्षा से जीव में अचेतन-भाव है ।

    जीवस्‍याप्‍यसद्भूतव्‍यवहारेणाचेतनस्‍वभावः ॥आ.प.१६२॥
    इसी प्रकार कर्म-बन्ध के कारण जीव मूर्तरूप परिणमन कर रहा है ।

    स्‍पर्शरसगंधवर्णसद्भावस्‍वभाव मूर्त । स्‍पर्शरसगंधवर्णाऽभाव-स्‍वभावममूर्त ।.....अमूर्तः स्‍वरूपेण जीवः पररूपावेशान्‍मूर्तोऽपि ॥पं.का.९७.टी.॥
    अर्थ – स्‍पर्श, रस, गन्‍ध, वर्ण का सद्भाव जिसका स्‍वभाव है वह मूर्त है; स्‍पर्श, रस, गन्‍ध, वर्ण का अभाव जिसका स्‍वभाव है वह अमूर्त है । जीव स्‍वरूप से अमूर्त है किन्‍तु पररूप से अनुरक्‍त होने की अपेक्षा मूर्त भी है ।

    बंघं पडि एयत्तं लक्‍खणदो हवइ तस्‍स णाणत ।
    तम्‍हा अमुत्तिभावोऽणेयंतो होइ जीवरस ॥स.सि.२/७॥
    अर्थ – आत्‍मा और कर्म, बन्‍ध की अपेक्षा से एक हैं तो भी लक्षण की अपेक्षा वह भिन्‍न हैं । इसलिये जीव का अमूर्तिक भाव अनेकान्‍तरूप है । वह बंध की अपेक्षा से मूर्त है और स्‍वभाव अपेक्षा से मूर्त नहीं है ।

    कम्‍म सम्‍बन्‍धवसेण पोग्‍गलभावमुवगयजीवदव्‍वाणं च पच्‍चक्‍खेण परिच्छित्तिं कुणइ ओहिणाणं ॥ज.ध.१/४३॥
    अर्थ – कर्म के सम्‍बन्‍ध से पुद्गल-भाव (मूर्तभाव) को प्राप्‍त हुये जीवों को जो प्रत्‍यक्ष रूप से जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं ।

    जीव में यह मूर्त भाव पौद्गलिक कर्मों के सम्‍बन्‍ध से आया है इसलिये जीव में यह मूर्तभाव असद्भूत-व्‍यवहारनय का विषय है ।

    जीवस्‍याप्‍य-सद्भूतव्‍यवहारेणा मूर्तस्‍वभावः ॥आ.प.-१६४॥


    अर्थ – असद्भूत-व्‍यवहारनय से जीव के भी मूर्त-स्‍वभाव है । इसका विशेष कथन सूत्र १०३ की टीका में भी है ।

    पुद्गल में चेतन स्‍वभाव कहने का कारण यह है कि पौद्गलिक कर्म आत्‍म-परिणामों से अनुरंजित होने के कारण कथंचित् चैतन्‍य है किन्‍तु पुद्गल द्रव्‍य स्‍वभाव की अपेक्षा अचेतन है । कहा भी है -

    पौरूषेयपरिणामानुरत्र्जित्‍वात् कर्मणः स्‍याच्‍चैत्तन्‍यम्, पुद्गलद्रव्‍या-देशाच्‍च स्‍यादचेतनत्‍वमिति ॥रा.वा.५/१९/२४॥
    अर्थ – 'कर्म' पुरूष के परिणामों से अनुरंजित होने के कारण कथंचित् चेतन हैं पुद्गल-द्रव्‍य की दृष्टि से वह अचेतन हैं ।

    आत्‍मा पुद्गल-द्रव्‍य से भिन्‍न दूसरा द्रव्‍य है । क्‍योंकि आत्‍म-परिणामों से अनुरंजित होने के कारण पुद्गल में चेतनभाव है अतः यह असद्भूत व्‍यवहार-नय का विषय है । कहा भी है -

    असद्भूतव्‍यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्‍वभावः ॥आ.प.१६०॥
    अर्थ – असद्भूत-व्‍यवहारनय से कर्म नोकर्म के भी चेतनस्‍वभाव है । सूत्र १६० में भी पुद्गल के चेतन-स्‍वभाव बतलाया गया है ।


इसी प्रकार पुद्गल में अमूर्तभाव सिद्ध कर लेना चाहिये ।