+ धर्मादि तीन द्रव्‍यों में स्‍वभावों की संख्‍या -
चेतनस्‍वभावः मूर्तस्‍वभावः विभावस्‍वभावः अशुद्धस्‍वभावः उपचरितस्‍वभावः एतैर्विना धर्मादि त्रयाणां षोडशस्‍वभावाः सन्ति ॥30॥
अन्वयार्थ : धर्म-द्रव्‍य, अधर्म-द्रव्‍य तथा आकाश-द्रव्‍य इन तीन द्रव्‍यों में उपर्युक्‍त २१ स्‍वभावों में से चेतन-स्‍वभाव, मूर्त-स्‍वभाव, विभाव-स्‍वभाव, उपचरित-स्‍वभाव और अशुद्ध-स्‍वभाव ये पांच स्‍वभाव नहीं होते, शेष सोलह स्‍वभाव होते हैं । अर्थात् १ अस्ति-स्‍वभाव, २. नास्ति-स्‍वभाव, ३. नित्‍य-स्‍वभाव, ४. अनित्‍य-स्‍वभाव, ५. एक-स्‍वभाव, ६. अनेक-स्‍वभाव, ७ भेद-स्‍वभाव, ८. अभेद-स्‍वभाव, ९. परम-स्‍वभाव, १०. एकप्रदेश-स्‍वभाव, ११. अनेकप्रदेश-स्‍वभाव, १२ अमूर्त-स्‍वभाव, १३. अचेतन-स्‍वभाव, १४. शुद्ध-स्‍वभाव, १५. भव्‍य-स्‍वभाव, १६. अभव्‍य-स्‍वभाव -- ये १६ स्‍वभाव होते हैं ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

धर्म-द्रव्‍य, अधर्म-द्रव्‍य, आकाश-द्रव्‍य, काल-द्रव्‍य और पुद्गलद्रव्‍य ये पांचों ही द्रव्‍य अचेतन-स्‍वभाव वाले हैं, मात्र जीव-द्रव्‍य चेतन-स्‍वभावी है, किन्‍तु जीव के साथ बंघ को प्राप्‍त हो जाने से पुद्गल में तो चेतन-स्‍वभाव हो जाता है; शेष चार द्रव्‍य (धर्म-द्रव्‍य, अधर्म-द्रव्‍य, आकाश-द्रव्‍य और काल-द्रव्‍य) जीव के साथ बंघ को प्राप्‍त नहीं होते, इसलिये इन चारों द्रव्‍यों में चेतन-स्‍वभाव का निषेध किया गया है ।

मात्र पुद्गल-द्रव्‍य मूर्तिक है। शेष पांच द्रव्‍य (जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) अमूर्तिक हैं, किन्‍तु पुद्गल के साथ बंध को प्राप्‍त हो जाने से जीव में मूर्तिक स्‍वभाव हो जता है । शेष चार द्रव्‍य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) पुद्गल के साथ बंध को प्राप्‍त नहीं होते, इसलिए इनमें मूर्त-स्‍वभाव का निषेध किया गया है ।

धर्म-द्रव्‍य, अधर्म-द्रव्‍य, आकाश-द्रव्‍य, काल-द्रव्‍य ये चारों द्रव्‍य बंध को प्राप्‍त नहीं होते इसलिये इनमें विभाव-स्‍वभाव, उपचरित-स्‍वभाव और अशुद्ध-स्‍वभाव भी नहीं होते, क्‍योंकि अन्‍य द्रव्‍य के साथ बंध को प्राप्‍त होने पर ही द्रव्‍य अशुद्ध होता है, विभावरूप परिणमता है और कथंचित् उस अन्य द्रव्‍य के स्‍वभाव को ग्रहण करने से अन्‍यद्रव्‍य के स्‍वभाव का उपचार होता है । जीव और पुद्गल बंध को प्राप्‍त होते हैं, इसलिये उनमें विभाव-स्‍वभाव, उपचरित-स्‍वभाव और अशुद्ध-स्‍वभाव का कथन किया गया है ।