मुख्तार :
'भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः ।' द्वन्द्व-समास की अपेक्षा इस सूत्र का अर्थ होता है -- भेद और उपचार के द्वारा जो वस्तु का व्यवहार होता है वह व्यवहार नय है । जो भेद के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे वह सद्भूत-व्यवहार-नय है और जो उपचार के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे वह असद्भूत-व्यवहार-नय है । संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा गुण और गुणी में भेद करने वाली नय सद्भूत-व्यवहार नय है । इसी प्रकार पर्याय-पर्यायी में, स्वभाव-स्वभावी में, कारक-कारकी में भी भेद करना सद्भूत-व्यवहार-नय है । जैसे -- उष्ण स्वभाव और अग्नि स्वभावी में भेद करना तथा मृतपिंड की शक्ति-विशेष कारक में और मृतपिंड कारकी में भेद करना । ये सब सद्भूत-व्यवहार-नय के दृष्टान्त हैं । अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्यत्र समारोप करने वाली असद्भूत-व्यवहार नय है । जैसे पुद्गल आदि में जो धर्म (स्वभाव) है उसका जीवादि में समारोप करना । इसके नौ भेद हैं
उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय मुख्य में अभाव में प्रयोजनवश या निमित्तवश जो उपचार होता है वह उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय है । जैसे मार्जार (बिलाव) को सिंह कहना । यहाँ पर मार्जार और सिंह में में साद्दश्य सम्बन्ध के कारण मार्जार में सिंह का उपचार किया गया है, क्योंकि सम्बन्ध के बिना उपचार नहीं हो सकता । जैसे चूहे आदि में सिंह का उपचार नहीं किया जा सकता । वह सम्बन्ध अनेक प्रकार का है । जैसे -- अविनाभाव सम्बन्ध, संश्लेष सम्बन्ध, परिणाम-परिणामी सम्बन्ध, श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध, चारित्र-चर्या सम्बन्ध इत्यादि । ये सब उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय के विषय हैं । 'तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' यह उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय का विषय है, क्योंकि यहाँ पर श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध पाया जाता है ।'सर्वज्ञ' यह भी उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय का विषय है, ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध पाया जाता है, सर्व जो ज्ञेय उनका ज्ञायक सर्वज्ञ होता है । इत्यादि |