मुख्तार :
अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय अशुद्ध द्रव्य है । संसारी जीव अनादि काल से पौद्गलिक कर्मो से बंधा हुआ है इसलिये अशुद्ध है । संसारी जीव में कर्मजनित औदयिक भाव निरन्तर होते रहते हैं । वे औदयिक भाव जीव के स्वतत्त्व है । कोधादि कर्मजनित औदयिकभावमयी आत्मा अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय का विषय है । भावेसु राययादी सव्वे जीवंमि जो दु जंपेदि ।
अर्थ – सब जीवों में रागादि भावों को कहने वाला जो नय है वह कर्मोपाधि-सापेक्ष अशुद्ध नय है ।
सोहु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो ॥न.च.२१॥ |