मुख्तार :
संस्कृत नयचक्र में इस नय का लक्षण निम्न प्रकार कहा है -- अशुद्धनित्ययपर्यायान् कर्मजान् विवृणोति य: ।
अर्थ – शुद्ध-पर्याय की विवक्षा न कर, कर्म-जनित नारकादि विभाव पर्यायों को जीवस्वरूप बतलाने वाला नय अनित्य-अशुद्ध-पर्यायार्थिक नय है ।विभावानित्यपर्यायग्राहकोऽशुद्धसंज्ञक: ॥सं.न.च.१२/४२॥ शुद्धपर्यायविवक्षाऽभावेन कर्मोपाघिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष-विभावानित्याशुद्धपर्याया-र्थिक नय: ॥/८॥ प्राकृत नयचक्र में भी कहा है -- भणह नणिच्वाशुद्धा चच्बद्दवीवाण पव्जबा जो हु ।
अर्थ – जो नय संसारी जीवों की चतुर्गति सम्बन्धी अनित्य तथा अशुद्ध पर्यायों को ग्रहण करता है, वह विभाव-अनित्य-अशुद्ध-पर्यायार्थिक नय है ।होइ विभावअणिच्चो असुद्धओ पज्जयत्थिणओ ॥२०५/७५॥ ॥ इस प्रकार पर्यायार्थिक नय के छह भेदों का निरूपण हुआ ॥ |