+ विशेष संग्रहनय -
विशेषसंग्रहो यथा सर्वे जीवा: परस्‍परमविरोधिन: ॥70॥
अन्वयार्थ : विशेष-संग्रहनय, जैसे -- सर्व जीव परस्‍पर में अविरोधी हैं, एक है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

जो नय एक जाति विशेष की अपेक्षा से अनेक पदार्थों को एकरूप ग्रहण करता है वह विशेष संग्रह नय है । जैसे-चैतन्‍यपने की अपेक्षा से सम्‍पूर्ण जीवराशि एक है । जीव के कहने से सामान्‍यतया सब जीवों का तो ग्रहण हो जाता है परन्‍तु अजीव का ग्रहण नहीं होता है, अत: यह विशेष संग्रह नय है । प्राकृत नयचक्र में भी कहा है --

होइ त्तमेव अशुद्धं इगिजाइविसेसगहणेण । (प्रा.न.च/७६)

अर्थ – एक जातिविशेष ग्रहण करने से वह अशुद्ध (विशेष) संग्रह नय है ।

संस्‍कृत नयचक्र में भी इसी प्रकार कहा है -

जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरंगनिचयरयनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंवीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति द्विजवर वणिग्‍वर तलवराद्यष्‍टाद्शश्रेणीनिचय इत्‍यादि दृष्‍टांतै: प्रत्‍येकजाति-निचयमेकवचनेम स्‍वीकृत्‍य कथनं विशेषसंग्रहनय: । (सं.नच./१३)

अर्थ – जीव समूह, अजीव समूह, हाथियों का झुण्‍ड, घोडों का झुण्‍ड, रथों का समूह, पैदल चलने वाले सैनिकों का समूह, निंबु, जामुन, आम व नारियल का समूह; इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्‍ठ, कोटपाल आदि अठारह श्रेणी के निश्चय इत्‍यादिक द्दष्‍टांतों के द्वारा प्रत्‍येक जाति के समूह को नियम के एकवचन द्वारा स्‍वीकार करके कथन करना विशेष संग्रह नय है ।

॥ इस प्रकार संग्रह नय के दोनों भेदों का कथन हुआ ॥