मुख्तार :
इस नय का विशेष कथन सूत्र ४१ की टीका में किया जा चुका है । किन्तु संस्कृत नयचक्र में इस प्रकार कहा है -- शब्दप्रयोगस्यार्थ जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्दने ज्ञाते सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति । अथवा दाराः कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिंगसंख्यासाघनादि त्र्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थ स्वीकर्तव्य-मिति शब्दनयः । ॥सं.न.च.१७॥
अर्थ – 'शब्दप्रयोग के अर्थ को जानता हूँ' इस प्रकार अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ को जान लेने पर पर्यायावाची शब्द का अर्थक्रम जैसे पुष्य, तारक और नक्षत्र ये एकार्थ के वाचक्र हैं इसलिए इन का एकार्थ है। अथवा दारा, कलत्र, भार्या इनका एकार्थ होता है । कारणवशात् लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ को स्वीकार करना चाहिये यह शब्दनय है ।टिप्पण में कहा है -- जहाँ पर लिंग, संख्या, साधन आदि का व्यभिचार होने पर भी दोष नहीं है वह शब्द नय है । प्राकृत नयचक्र में इस प्रकार कहा है - जो वट्टणं ण मण्णइ एयत्ये भिण्णलिंग आईणं ।
अर्थ – जो नय एक पदार्थ में भिन्न लिंगादिक की स्थिति को नहीं मानता है वह शब्द नय है जैसे - पुष्यादि ।सो सद्दणओ भणिओ पुस्साइयाण एद्दा ॥प्रा.न.च.२१३॥ शब्द नय के विषय में दो मत है-एक मत यह हैकि शब्द नय लिंग आदि के दोष को दूर करता है। दूसरा मत है कि शब्द नय की दृष्टि में लिंग, संख्या, साधन आदि का दोष नहीं है । |