
मुख्तार :
असद्भूत व्यवहारनय का लक्षण सूत्र ४४ की टीका में कहा जा चुका है और आगे भी सूत्र २०७ में कहेंगे । संस्कृत नयचक्र में भी कहा है -- यद्न्यस्य प्रतिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र कल्पना असद्भूतो भवेद्धावः । (सं.न.च.२२) अर्थ – अन्य के प्रसिद्ध धर्म को किसी अन्य में कल्पित करना सो असद्भूत-व्यवहारनय है । असद्भूत-व्यवहारनय के तीन भेद है -- १. स्वजात्यसद्भूत-व्यवहारनय, २. विजात्यसद्भूत-व्यवहारनय, ३. स्वजातिविजात्यसद्भूत-व्यवहारनय । |