
मुख्तार :
जो नय विजातीय द्रव्यादिक में विजातीय द्रव्यादिक का संस्थापन करता है वह विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है । जैसे -- मूर्तिक मतिज्ञानावरण कर्म और वीर्यंतरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला क्षायोपशमिक मतिज्ञान मूर्तिक है । यहाँ पर मतिज्ञान नामक आत्मगुण में पौद्गलिक मूर्तत्वगुण कहा गया है । संस्कृत नयचक्र में इस उपनय का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है -- एकेन्द्रियादिजीवानां शरीराणि जीवस्वरूपाणीति विजात्यसद्भूत-व्यवहारोपनयः ।…एकेन्द्रियादिंजीवानां देहं जीव इति ध्रुवं वक्त्य-सद्भूतको नूनं स्याद् विजातीति संज्ञितः ॥सं.न.च.२२॥
अर्थ – एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर जीवस्वरूप हैं, इस प्रकार से कथन करने वाला विजातीय-असद्भूत-व्यवहार-उपनय है । एकेन्द्रियादि जीवों का शरीर जीव है, इस प्रकार कथन करने वाला विजातीय-असद्भूत-व्यवहार-उपनय है । यहाँ विजाति द्रव्य को विजाति द्रव्य में कहा गया है ।शरीरमपि वो जीवं प्राणिनो वदति स्फुटं ।
अर्थ – जो प्राणियों के शरीर को ही जीव बतलाता है, वह स्पष्टत्तया विजातीय-असद्भूतव्यवहार उपनय समझना चाहिए, क्योंकि विजातीय पुद्गल द्रव्य में विजातीय जीव द्रव्य का कथन किया गया है ॥१॥ विजातीय गुण में विजातीय गुण का आरोपण करने से भी असद्भूत व्यवहार होता है । जैसे -- कर्म-जनित होने से ज्ञान मूर्त है, यदि मूर्त नहीं है तो मूर्त से स्खलित क्यों होता । मतिज्ञान मूर्त द्रव्य से स्खलित होता है अतः मतिज्ञान को मूर्त कहना सत्य है, सर्वथा असत्य नहीं है ।
असद्भूतो विजातीयो ज्ञातव्यो मुनिवाक्यतः ॥१॥ मूर्तमेवमिति ज्ञानं कर्मणा जनितं यतः । यदि नैव भवेन्मूर्तंमूर्तेन स्खलितं कुतः ॥२ सं.न.च.४५॥ |