+ स्‍वजाति-विजाति-असद्भूत-व्‍यवहार उपनय -
स्‍वजातिविजात्‍यसद्भूतव्‍यवहारो यथा ज्ञेये जीवेऽजीवे ज्ञानमिति कथनं ज्ञानस्‍य विषयात् ॥87॥
अन्वयार्थ : ज्ञान का विषय होने के कारण जीव अजीव ज्ञेयों में ज्ञान का कथन करना स्‍वजाति-विजात्‍य-सद्भूत-व्‍यवहारोपनय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

जीव और अजीव, ज्ञान का विषय होने के कारण विषय में विषयी का उपचार करके जीव-अजीव ज्ञेय को ज्ञान कहा गया है । यहाँ पर ज्ञान-गुण की अपेक्षा जीव स्‍वजातीय है और अजीव विजातीय है । जीव की अपेक्षा स्‍वाजातीय तथा अजीव की अपेक्षा विजातीय में ज्ञान-गुण का कथन किया गया है ।

संस्‍कृत नयचक्र में इस नय का स्‍वरूप निम्‍न प्रकार कहा गया है --

जीवपुद्गलानां परस्‍परसंयोगप्रबंधपरिणतिविशेषकथकः स्‍वजाति-विजात्‍यसद्भूतव्‍यवहारोपनयः ।....स्‍वजातीतर रूपादिवस्‍तुश्रद्धेयरूपकः तत् प्रधानं वद्त्‍येवं द्वंद्वग्राही नयो भवेत् । (सं.न.च.२२)

अर्थ – जीव और पुद्गलों के परस्‍पर संयोग रचनारूप परिणतिविशेष को बतलाने वाला स्‍वजातिविजातीय-असद्भूतव्‍यवहार-उपनय है । स्‍वजातीय और विजातीय वस्‍तु श्रद्धेयरूप हैं उसको प्रधान करके जो कहता है वह द्वंद्वसंयोग को अर्थात् स्‍वजाति-विजाति-संयोग को ग्रहण करने वाला स्‍वजातिविजातीय-असद्भूत-व्‍यवहार उपनय है ।

॥ इस प्रकार असद्भूतव्‍यवहारनय के तीनों भेदों का कथन हुआ ॥