+ उपचरित असद्भूत व्‍यवहारनय के प्रकार -
उपचरितासद्भूतव्‍यवहारस्‍त्रेधा ॥88॥
अन्वयार्थ : उपचरित असद्भूत व्‍यवहारनय तीन प्रकार का है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

१. स्‍वजात्‍युपचरित-असद्भूतव्‍यवहार-उपनय, २. विजात्‍युपचरित-असद्भूतव्‍यवहार-उपनय, ३. स्‍वजातिविजात्‍युपचरित-असद्भूत-व्‍यवहार-उपनय के भेद से उपचरित असद्भूतव्‍यवहार-उपनय तीन प्रकार का है । इनका कथन आगे किया जा रहा है ।

संस्‍कृत नयचक्र में कथन इस प्रकार है --

उपचाराद्प्‍युपचार यः करोति स उपचरितसद्भूतव्‍यवहारः । स च सत्‍यासत्‍योभयार्थेन त्रिधा । (सं.न.च.४८)
देशनाथो यथा देशे जातो यथार्थनायक: ।
देशार्थो जल्‍पमानो मे सत्‍यासत्‍योभयार्थक: ॥१॥
अर्थ – जो उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरित-असद्भूत-व्‍यवहार उपनय है । वह सत्‍योपचारासद्भूत, असत्‍योपचारासद्भूत और उभयोपचारासद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है ।

जो नय किसी प्रयोजन या निमित्त से बिलकुल भिन्‍न स्‍वजातीय, विजातीय तथा स्‍व‍जातिविजातीय पदार्थों को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह उपचरितासद्भूत-व्‍यवहार उपनय है ।

प्राकृत नयचक्र में भी इसी प्रकार कहा है --

उवयारा उवयारं सच्‍चासक्ष्‍च्‍चेसु उद्दयश्रत्‍थेसु ।
सज्‍जाइइयरमिस्‍सो उवयरिओ कुणइ ववहारो ॥प्रा.न.च.७१॥
स्‍वजातीयोपचरितासद्भूतव्‍यवहारो विजातीयोपचरितासद्भूत-व्‍यवहार: सजातीय-विजातियोपचरितासद्भूतव्‍यवहार: इति उपचरिता-सद्भूततोपि त्रेधा ।
देसवई देसत्‍थो अत्‍थवणिज्‍जो तहेव जंपंतो ।
में देसं मे दव्‍वं सच्‍चाससच्‍चंपि उभयत्‍थं ॥७२॥
अर्थ – जो नय सत्‍य (स्‍वजाति) पदार्थ में असत्‍य (विजातीय) पदार्थ में और उभय (स्‍वजातीय-विजातीय) पदार्थ में उपचार से भी उपचार करता है वह स्‍वजाति-उपचरित-असद्भूत व्‍यवहार-उपनय, विजाति-उपचरित-असद्भूत-व्‍यवहार-उपनय और स्‍वजाति-विजाति-उपचरित-अद्भूत्त-व्‍यवहार-उपनय है ।

स्‍वजा‍तीयोपचरिताद्भूतव्‍यहार, विजातीयोपचरितासद्भूतव्‍यवहार, स्‍वजातीयविजातियोपचरितासद्भूत-व्‍यवहार के भेद से उपचरितासद्भूतव्‍यवहार उपनय तीन प्रकार का है ।

जिस प्रकार देश का स्‍वामी देशपति तथा अर्थ का स्‍वामी अर्थपति होता है उसी प्रकार सत्‍यपदार्थ (स्‍वजातीय पदार्थ), असत्‍य ( विजातीय ) पदार्थ और स्‍वजातीय-विजातीयपदार्थों तो मेरा देश, मेरा द्रव्‍य है, इत्‍यादि कहा जाता है ।

राजा देश का स्‍वामी होता है और सेठ (धनपति) धन का स्‍वामी होता है। स्‍त्री का स्‍वामी पति होता है । यह सब कथन यद्यपि उपचरित-असद्भूत-व्‍यवहार उपनय का विषय है तथापि यथार्थ है । यदि यथार्थ न होता तो सीता के हरी जाने पर सीतापति श्री रामचन्‍द्र जी रावण से युद्ध क्‍यों करते ? इसी प्रकार देश की रक्षा के लिए देशपति राजा शत्रु के साथ युद्ध क्‍यों करते ? तथा रावण, कौरव आदि दोषी क्‍यों होते ? इससें सिद्ध है कि स्‍त्री, धन व देश आदि का स्‍वामिपना स्तात् यथार्थ है । यदि इस सम्‍बन्‍ध को अर्थात् स्‍वामिपने को सर्वथा अयथार्थ मान लिया जाय तो अराजकता और अन्‍याय फैल जायगा । चोरी आदि पाप नहीं ठहरेगा । इसका विशेष कथन सूत्र २१३ की टीका में है ।