
मुख्तार :
जो नय उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है वह स्वजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है । जैसे -- पुत्र, स्त्री आदिक मेरे हैं । संस्कृत नयचक्र में भी कहा है -- पुत्रमित्रकलत्रादि ममैतवहमेव वा ।
'ये पुत्र, मित्र, स्त्री आदि मेरे हैं, मैं इनका स्वामी हूँ’ यह कथन सत्योपचार असद्भूत व्यवहार की अपेक्षा है । लोकोपचार में यथार्थ स्वामित्वपना पाया जाता है किन्तु आत्मरूप नहीं है इसलिये असद्भूत है ।वदन्नेवं भवत्येषोऽसद्भूतो हयुपचारवान् ॥सं.न.च.२/४८॥ प्राकृत नयचक्र में भी इसी प्रकार कहा है -- पुत्ताइबंधुवग्ग अह्ं च मम संपयाइ जंपंतो ।
अर्थ – पुत्रादि बन्धु वर्ग का मैं स्वामी हूँ, ये मेरी सम्पदा है, ऐसा कहना स्वजातिउपचरित-असद्भूत-व्यवहार उपनय है ।उवयारासब्भूओ सज्जाइदव्वेसु णायव्वो ॥प्रा.न.च.७३॥ इस नय का विषय यथार्थ है। सूत्र ८८ व २१३ विशेषार्थ में विशद कथन है । |