+ चेतेनत्‍व -
चेतनस्‍य भावश्‍चेतनत्‍वम् चैतन्‍यमनुभवनम् ॥101॥
अन्वयार्थ : चेतन के भाव को अर्थात् पदार्थों के अनुभव को चेतेनत्‍व कहते हैं ।

  मुख्तार 

मुख्तार :


चैतन्‍यमनुभूतिः स्‍यात् सा क्रियारूपमेव च ।
क्रिया मनोवच:कायेष्‍वन्विता वर्तते ध्रुवम् ॥६॥
चैतन्‍य नाम अनुभूति का है। वह अनुभूति क्रियारूप अर्थात् कर्तव्‍य-स्‍वरूप ही होती है। मन, वचन, काय में अन्वित (सहित) वह क्रिया नित्‍य होती रहती है ।

विशेषार्थ – जीवाजीवादि पदार्थों के अनुभवन को, जानने को चेतना कहते हैं । वह अनुभवन ही अनुभूति है । अथवा द्रव्‍यस्‍वरूप चिंतन को अनुभूति कहते हैं । श्री अमृतचन्‍द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा ३९ की टीका में लिखा है --

चेतयंते अनुभवन्ति उपलभंते विदंतीत्‍येकार्याश्‍चेतनानुभूत्‍युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्‍वात् ॥पं.का.३९.टी॥
अर्थ – चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्‍ध करता है और वेदता है ये एकार्थ है क्‍योंकि चेतना, अनुभूति, उप‍लब्धि और वेदना का एका‍र्थ है ।