+ अचेतनत्‍व -
अचेतनस्‍य भावेऽचेतनत्‍वमचैतन्‍यमननुभवनम् ॥102॥
अन्वयार्थ : अचेतन के मात्र को अर्थात् पदार्थों के अननुभवन को अचेतनत्‍व कहते हैं ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

जीव के अतिरिक्‍त पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांचों द्रव्‍य अचेतन है, जड़ हैं, क्‍योंकि इनमें जानने की शक्ति अर्थात् अनुभवन का अभाव है ।