
मुख्तार :
पुद्गल और संसारी जीव मूर्त हैं । सूत्र २९ में भी जीव के मूर्त स्वभाव कहा है । श्री अमृतचन्द्रादि अन्य आचार्यो ने भी संसारी जीव को मूर्तिक कहा है । तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् ।;;नह्यमूर्त्तस्य नभसो मदिरा मद्कारिणी ॥१९ त.सा.बंध॥
अर्थ – आत्मा मूर्तिक होने के कारण मदिरा से पागल हो जाती है, किन्तु अमूर्तिक आकाश को मदिरा मदकारिणी नहीं होती है ।यथा खलु पय:पूर: प्रदेशस्वादाभ्यां पिचुधन्द्चन्द् नादिवनराजीं परिणमन्न द्रवत्यस्वादुत्वस्वभावमुपलभते, तथात्मापि प्रदेशभावाभ्या कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्व- निरूपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते ॥प्र.सा.१११८ टीका॥
अर्थ – जैसे पानी का पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्ब, चन्दनादि वन-राजिरूप परिणमित होता हुआ द्रवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से अमूर्तत्व और विकाररहित विरूद्ध स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता ।जीवाजीवं दव्वं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं ।
अर्थ – संसारी जीव रूपी (मूर्तिक) है और कर्म-रहित सिद्ध-जीव अमूर्तिक हैं ।संसारत्था रूवा कम्मविमुक्का अरूवगया ॥गो.जी.५६३॥ कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभाक्मुवगय जीवदव्वाणं च पच्चक्खेण परिच्छित्तिं कुणइ ओहिणाणं ॥ज.ध.१/४३॥
अर्थ – कर्म के सम्बन्ध से पुद्गल भाव को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्षरूप से जानता है, वह अवधिज्ञान है । ध.१३/३३३ पर भी इसी प्रकार कहा है ।अनादिबन्धनबद्धत्वतो मूर्तानां जीवावयवानां मूर्तेण शरीरेण सम्बन्धं प्रति विरोघासिद्धे: ॥ध.१/१९२॥
अर्थ – जीव के प्रदेश अनादिकालीन बन्धन से बद्ध होने के कारण मूर्त हैं अत: उनका मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं आता । इसी प्रकार ध.१६/५१२ पर भी कहा है । ध.१५/३२, पु० १४/४५ पर कहा है -- अनादिकालीन बन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव के अमूर्तत्व का अभाव है । |