+ पर्याय -
स्‍वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय: ॥105॥
अन्वयार्थ : जो स्‍वभाव विभावरूप से सदैव परिणमन करती रहती है, वह पर्याय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

सूत्र १५ में 'गुणविकारा: पर्याया:' कहा है । परि+आय:=पर्याय: है । परि का अर्थ समन्‍ताते है और आय: का अर्थ अय गतौ अयनं है ।

स्‍वभाव और विभाव के भेद से पर्याय दो प्रकार की है । बन्‍धन से रहित शुद्ध द्रव्‍यों की अगुरूलधुगुण की षड्वृद्धि हानि के द्वारा स्‍वभाव पर्याय होती है । बन्‍धन को प्राप्‍त अशुद्ध द्रव्‍यों की प‍रनिमित्तक विभाव पर्याय होती है । इसका विशेष कथन सूत्र १६ के विशेषार्थ में है।

द्रव्‍य का लक्षण उत्‍पाद, व्‍यय और ध्रौव्‍य है । अर्थात् द्रव्‍य में प्रतिसमय पूर्व पर्याय का व्‍यय और उत्तर पर्याय का उत्‍पाद होता रहता है । यही द्रव्‍य का परिणमन है । सिद्धजीव, पुद्गल परमाणु, धर्म-द्रव्‍य, अधर्म-द्रव्‍य, आकाश-द्रव्‍य और काल-द्रव्‍य इनमें स्‍वभाव परिणमन होने से स्‍वभाव पर्यायें होती हैं । संसारी-जीव और पुद्गल-स्‍कंध अशुद्ध द्रव्‍य है इनमें विभाव पर्याय होती हैं ।

॥ इस प्रकार पर्याय को व्‍युत्‍पत्ति का कथन हुआ ॥