+ भेद-स्‍वभाव -
गुणगुण्‍यादिसंज्ञादिभेदाद् भेदस्‍वभाव: ॥112॥
अन्वयार्थ : गुण गुणी आदि में संज्ञा, संख्‍या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भेद होने से भेद-स्‍वभाव है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :


  • गुण और गुणी दोनों पृथक् पृथक् संज्ञा हैं अत: संज्ञा की अपेक्षा गुण और गुणी में भेद है ।
  • गुण अनेक हैं और गुणी एक है अत: संख्‍या की अपेक्षा भी गुण और गुणी में भेद है ।
  • द्रव्‍य का लक्षण सत् है और गुण का लक्षण है 'द्रव्‍याश्रया निगुर्णा गुणा:' (जो द्रव्‍य के आश्रय और अन्‍य गुणों से रहित है वह गुण है) अत: दोनों का पृथक् पृथक् लक्षण होने से गुण और गुणी में लक्षण की अपेक्षा भी भेद है ।
  • द्रव्‍य के द्वारा लोक का मान किया जाता है और गुण के द्वारा द्रव्‍य जाना जाता है, इस प्रकार गुण गुणी का पृथक्-पृथक् प्रयोजन होने से गुण और गुणी में प्रयोजन की अपेक्षा से भी भेद है ।
जैसे --
  • जीव द्रव्‍य में गुणी की संज्ञा 'जीव' है और गुण की संज्ञा 'ज्ञान' है ।
  • जो इन्द्रिय, बल, आयु, प्राणापान इन चार प्राणों के द्वारा जीता है, जीता था और जीवेगा; यह जीव द्रव्‍य-गुणी की लक्षण है । जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाय वह ज्ञान है, यह ज्ञान का लक्षण है ।
  • जीव द्रव्‍य-गुणी अविनश्‍वर रहते हुये भी बंध, मोक्ष आदि पर्याय रूप परिणमन करता है यह जीव गुणी का प्रयोजन है । मात्र पदार्थ को जानना ज्ञान-गुण का प्रयोजन है ।
इस प्रकार गुण-गुणी में पर्याय-पर्यायी आदि में संज्ञादि की अपेक्षा भेद होने से द्रव्‍य में भेद स्‍वभाव है ।

सद्भूतव्‍यवहारेण भेद इति ॥सं.न.च.६५॥
अर्थात् सद्भूतव्‍यवहारनय की अपेक्षा भेद स्‍वभाव है ।