
मुख्तार :
'पर' शब्द के अनेक अर्थ हैं किन्तु इस सूत्र में भाविकाल की दृष्टि से 'पर' का अर्थ 'आगे' होगा । द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायै: भाव्यमिति ॥पं.का.३७.टी॥
अर्थ – द्रव्य सर्वदा अभूत (भावि) पर्यायों से भाव्य है । अर्थात् भावि पर्याय रूप होने योग्य है अत: द्रव्य में भव्य भाव है ।भवितु परिणमितुं योग्यातं तु भव्यत्यं, तेन विशिष्टत्वाद् भव्या: ॥प्रा.न.च.३८॥
अर्थ – होने योग्य अथवा परिणमन करने योग्य वह भव्यत्व है । उस भव्यत्व भाव से विशिष्ट द्रव्य भव्य है ।यद्यपि सूत्र में 'परस्वरूपाकार' है किन्तु संस्कृत नयचक्र में 'स्वस्वभाव' पाठ है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव रूप परिणमन करने योग्य है इसलिए प्रत्येक द्रव्य में भव्य स्वभाव है । प्राकृत नयचक्र/४० पर भी कहा है कि भव्य स्वभाव के स्वीकार न करने पर सर्वथा एकान्त से अभव्य भाव मानने पर शून्यता का प्रसंग आ जायगा क्योंकि अपने स्वरूप से भी अभवन अर्थात् नहीं होगा । अत: संस्कृतनयचकानुसार इस सूत्र का पाठ निम्न प्रकार होना चाहिये -- 'भाविकाले स्वस्वभावभवनाद् भव्यस्वभावत्वं ।' |