+ शुद्ध-अशुद्ध स्‍वभाव -
शुद्धं केवलभावमशुद्धं तस्‍यापि विपरीतम् ॥122॥
अन्वयार्थ : केवलभाव (खालिस, अमिश्रित भाव) शुद्ध-स्‍वभाव है । इस शुद्ध के विपरीत भाव अर्थात् मिश्रित-भाव अशुद्ध-स्‍वभाव है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

जो द्रव्‍य अबद्ध है अर्थात् दूसरे द्रव्‍यों से बंधा हुआ नहीं है, वह द्रव्‍य शुद्ध है और उसके जो भाव हैं वे भी शुद्ध हैं । किन्‍तु जो द्रव्‍य अन्‍य द्रव्‍यों से बंधा हुआ है वह अशुद्ध है । उस अशुद्ध द्रव्‍य के जो भाव हैं वे भी अशुद्ध हैं । क्‍योंकि 'उपादानकारण सद्दशं कार्य भवतीति' अर्थात् उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है । इसी बात को श्री कुंदकुंद आचार्य दृष्‍टांत द्वारा बतलाते हैं ।

कणयमया भावादो जायंते कुण्‍डलाद्यो भावा ।
अयमयया आवादो जह जायंते तु कडयादी ॥स.सा.९०॥
अर्थ – सुवर्णमय द्रव्‍य से सुवार्णमय कुंडलादि भाव होते हैं और लोहमय द्रव्‍य से लोहमयी कड़े इत्‍यादिक भाव होते हैं ।