
मुख्तार :
जीव का लक्षण यद्यपि अमूर्तत्व और चेतनत्व है तथापि कर्म-बन्ध से एकत्व हो जाने के कारण जीव मूर्तभाव को प्राप्त हो जाता है । सूत्र १०३ के विशेषार्थ में तथा सूत्र २९ के विशेषार्थ में इसका विशद व्याख्यान है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मोदय से जीव में अज्ञान (अचेतन) औदयिक भाव है । अत: जीव में मूर्तत्व और अचेतनत्व कर्मज-औपचारिकभाव हैं । विशेष कथन सूत्र २९ के विशेषार्थ में है । सिद्ध भगवान् नियम से आत्मज्ञ हैं उनमें सर्वज्ञता उपचार से है अर्थात् औपचारिक भाव है । श्री कुंदकुंद आचार्य ने कहा भी है– जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवलो भगवं ।
अर्थ – केवली भगवान सर्व पदार्थों को जानते देखते है -- यह कथन व्यवहारनय (उपचरितनय) से है परन्तु केवलज्ञानी नियम से अपनी आत्मा को ही जानते और देखते हैं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥नि.सा.१५९॥ |