
मुख्तार :
दुर्नयैकान्तमारूढा भावानां स्वार्थिका हि ते ।
अर्थ – जो नय पदार्थों के दुर्नयरूप एकान्त पर आरूढ हैं, परस्पर विरूद्ध प्रतीत होने वाले नित्य, अनित्य आदि उभय धर्मों में से एक को मान कर दूसरे का सर्वथा निषेध करते है, वे स्वार्थिक हैं अर्थात् स्वेच्छा-प्रदृत्त हैं । स्वार्थिक होने से वे नय विपरीत हैं, क्योंकि वे दूषित नय अर्थात् नयाभास हैं ।स्वार्थिकाश्च विपर्यस्ता: सकलक्ङा नया यत: ॥८॥ विशेषार्थ – संस्कृत नयचक्र में इस गाथा का पाठ निम्न प्रकार है- दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता ।
अर्थ – दुर्नय एकान्त को लिये हुए भाव सम्यगर्थ वाले नहीं होते हैं । जो नय एकान्त से रहित भाव वाले हैं वे समीचीन अर्थ को बतलाने वाले हैं ।
स्वार्थिकास्तद् विपर्यस्ता नि:कलंकास्तथा यत: ॥सं.न.च.६१॥ |