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तथा हि - सर्वथैकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्यवस्था, संकरादिदोषत्वात्‌ ॥127॥
अन्वयार्थ : संकरादि दोषों से दूषित होने के कारण सर्वथा एकान्‍त के मानने पर सद्रूप पदार्थ की नियत अर्थव्‍यवस्‍था नहीं हो सकती है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

१. संकर, २. व्‍यतिकर, ३. विरोध, ४. वैयाधिकरण, ५. अनवस्‍था, ६. संशय, ७. अप्रतिपत्ति, ८. अभव, ये संकरादि आठ दोष हैं ।

  1. संकर - सर्व वस्‍तुओं का परस्‍पर मिलकर एक वस्‍तु हो जाना ।

  2. व्‍यतिकर - जिस वस्‍तु की किसी भी प्रकार से स्थिति न हो, वह व्‍यतिकर दोष है । जैसे -- 'चक्षु से सुना' यह व्‍यतिकर दोष है ।

  3. विरोध - जड़ का चेतन हो जाना और चेतन का जड़ होना । जड़ और चेतन में परस्‍पर विरोध है ।

  4. वैयाधिकरण - एक समय में अनेक वस्‍तुओं में विषम अर्थात् परस्‍पर विरूद्ध पर्यायें रह सकती हैं । जैसे -- शीत व उष्‍ण पर्यायें भिन्‍न-भिन्‍न वस्‍तुओं में तो रह सकती हैं, यथा-जल में शीतलता और अग्नि में उष्‍णता । किन्तु इन दोनों परस्‍पर विरूद्ध अर्थात् विषम पर्यायों को एक ही समय में एक के आधार कहना वैयाधिकरण दोष है ।

  5. अनवस्‍था - एक से दूसरे की, दूसरे से तीसरे की और तीसरे से चौथे की उत्‍पत्ति-इस प्रकार कहीं पर भी ठहरात नहीं होना जैसे- ईश्‍वर-कर्तृत्‍व में अनवस्‍था दोष आता है, क्‍योंकि संसार का कर्ता ईश्‍वर है, ईश्‍वर का कर्ता अन्‍य है और उस अन्‍य का कर्ता दूसरा है । इस प्रकार कल्‍पनाओं का कहीं विराम न होना अनवस्‍था दोष है ।

  6. संशय - वर्तमान में निश्‍चय न कर सकना संशय है । अथवा, विरूद्ध अनेक कोटि को स्‍पर्श करने वाले विकल्‍प को संशय कहते है । जैसे -- यह सीप है या चांदी ।

  7. अप्रतिपत्ति - वस्‍तु-स्‍वरूप की अज्ञानता अप्रतिपत्ति है ।

  8. अभाव - जिस वस्तु का सर्वथा अभाव हो उसको कहना अभाव दोष है। जैसे -- गधे के सींग ।