+ सर्वथा एक में दोष -
एकस्वरूपस्यैकान्तेन विशेषाभावः सर्वथैकरूपत्वात्‌ । विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः ॥131॥
अन्वयार्थ : एकान्‍त से एक-स्वरूप मानने पर सर्वथा एकरूपता होने से विशेष का अभाव हो जायगा और विशेष का अभाव होने पर सामान्‍य का भी अभाव हो जायगा ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

सूत्र ९५ में सामान्‍य और विशेषात्‍मक वस्‍तु बतलाई है । विशेष का अर्थ पर्याय है । जैसे -- शवक, छत्रक, स्‍याश, कोश, कुशूल, घट आदि पर्यायें । इन पर्यायों में अन्‍वयरूप से रहने वाला द्रव्‍य 'सामान्‍य' है । जैसे -- शव‍क आदि पर्यायों में रहने वाली मिट्टी । द्रव्‍य बिना पर्याय नहीं होती और पर्याय बिना द्रव्‍य नहीं होता । श्री कुंदकुंद आचार्य ने कहा भी है --

पज्‍जयविजुदं दव्‍वं दव्‍वविजुत्ता य पज्‍जया णत्थि ।
दोण्‍हं अणण्‍णभूदं भावं समणा परूर्वित्ति ॥पं.का.९२॥
अर्थ – पर्याय (विशेष) से रहित द्रव्‍य (सामान्‍य) और द्रव्‍य (सामान्‍य) से रहित पर्यायें (विशेष) नहीं होतीं । दोनों का अनन्‍यपना है, ऐसा श्रमण प्ररूपित्त करते हैं ।

अतः सर्वथा एकान्‍त से सामान्‍य मानने पर विशेष का अभाव हो जाने पर सामान्‍य का भी अभाव हो जायगा क्‍योंकि दोनों के अनन्‍यपना है ।

निर्विशेषं हि सामान्‍यं भवेत् खरविषाणवत् ।
सामान्‍यरहित्‍वाच्‍च विशेषस्‍तद्वदेव हि इति ज्ञेयः ॥९॥
अर्थ – विशेष रहित सामान्‍य निश्‍चय से गधे के सींग के समान है और सामान्‍य से रहित होने के कारण विशेष भी गधे के सींग के समान है अर्थात् अवस्‍तु है । ऐसा जानना चाहिये ।