+ सर्वथा भेद में दोष -
भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्‍वाभावे द्रव्‍यस्‍याप्‍यभावः ॥133॥
अन्वयार्थ : गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी के सर्वथा भेद पक्ष में विशेष स्‍वभाव अर्थात् गुण और पर्यायों के निराधार हो जाने से अर्थक्रियाकारित्‍व का अभाव हो जायेगा और अर्थक्रियाकारित्‍व के अभाव में द्रव्‍य का भी अभाव हो जायेगा ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

गुण और गुणी का सर्वथा भेद मानने पर तथा पर्याय और पर्यायी का सर्वथा भेद मानने पर अर्थात् प्रदेश अपेक्षा भी भेद मानने पर गुण और गुणी दोनों की भिन्‍न-भिन्‍न सत्ता हो जायगी तथा पर्याय और पर्यायी की भी भिन्‍न-भिन्‍न सत्ता हो जायेगी । भिन्‍न-भिन्‍न सत्ता हो जाने से गुण और पर्याय निराधार हो जायेंगे अर्थात् द्रव्‍य के आधार नहीं रहेंगे । गुण और पर्यायरूप विशेष स्‍वभावों के निराधार हो जाने से अर्थक्रियाकारित्‍व का अभाव हो जायेगा । अर्थक्रियाकारित्‍व का अभाव हो जाने से द्रव्‍य का भी अभाव हो जायेगा । श्री अमृतचन्‍द्राचार्य ने कहा भी है --

न खलु द्रव्‍यात्‍पृथग्‍भूतो गुण इति वा पर्याय इति वा कश्चिदपि स्‍यात् । यथा सुवर्णात्‍पृथग्‍भूतं तत्‍पीतत्‍वादिकमिति वा तत्‍कुण्‍डलादिकत्‍वमिति वा । (प्र.सा.११०.टी)

अर्थ – निश्‍चय नय से द्रव्‍य से पृथग्‍भूत कोई भी गुण या पर्याय नहीं होती । जैसे -- सुवर्ण का पीलापन गुण तथा कुण्‍डलादि पर्यायें सुवर्ण से पृथग्‍भूत नहीं होतीं ।