
मुख्तार :
आदि शब्द से पर-दर्शकत्व का भी ग्रहण हो जाता है । परज्ञता और पर-दर्शकत्व, ये उपचरित-स्वभाव हैं (सूत्र १२४) । एकान्त अनुपचरित पक्ष में उपचरित-पक्ष का निषेध होने से आत्मा का परज्ञता और पर-दर्शकत्व से विरोध आ जायगा जिससे सर्वज्ञता के अभाव का प्रसंग आ जायगा । ॥ इस प्रकार एकान्त पक्ष में दोषों का निरूपण हुआ ॥ नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः ।
अर्थ – प्रमाण से नाना स्वभाव वाले द्रव्य को ज्ञान करके, सापेक्षासिद्धि के लिये उसको कथंचित् नयों से मिश्रित अर्थात् युक्त करना चाहिये ।तच्च सापेक्षासिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरू ॥१०॥ सूत्र ३३ में बतलाया गया है कि द्रव्य आदि का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है । सूत्र ३४ में प्रमाण का लक्षण और सूत्र ३९ में नय का लक्षण बतलाया जा चुका है। आगे भी सूत्र १७७ में प्रमाण का स्वरूप और सूत्र १८१ में नय का स्वरूप कहा जायगा । स्यात् (कथंचित्) सापेक्ष नय सम्यग्नय हैं । द्रव्य में सापेक्ष स्वभावों की सिद्धि के लिये स्यात् सापेक्ष नयों का प्रयोग करना चाहिये । गाथा ८ में कहा गया है कि जो नय एकान्त पक्ष को ग्रहण करने वाली हैं अर्थात् 'स्यात्' निरपेक्ष हैं, वे दुर्नय हैं । अब आगे किस-किस द्रव्य में किस-किस नय की अपेक्षा कौन-कौन स्वभाव पाया जाता है इसका कथन किया जाता है -- |