
मुख्तार :
सूत्र ११६ में कहा है 'पारिणामिक भाव की मुख्यता से परमस्वभाव है ।' अतः यहाँ पर परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा भव्यभाव और अभव्यभाव को पारिणामिक भाव कहा गया है । सूत्र ५६ के विशेषार्थ में बतलाया गया है कि शुद्ध और अशुद्ध के उपचार से रहित जो नय द्रव्य के स्वभाव को ग्रहण करता है, वह परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । 'ज्ञानस्वरूप आत्मा' यह परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय का विषय है । स्वरूप से परिणमन करना भव्य-स्वभाव और पररूप से परिणमन नहीं करना अभव्य-स्वभाव, ये दोनों स्वभाव शुद्ध और अशुद्ध के उपचार से रहित हैं । अतः भव्य, अभव्य स्वभाव परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय का विषय है । परमभावग्राहक नय का कथन सूत्र १९० में भी है । |