
मुख्तार :
श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने द्रव्यसंग्रह में कहा है -- एयपदेसो वि अणू णाणाखंघप्पेदेसदो हादि ।
अर्थ – एक प्रदेशी भी पुद्गल-परमाणु स्निग्ध, रूक्ष गुण के कारण बंध होने पर अनेक स्कंधरूप बहुप्रदेशी हो सकता है। इस कारण सर्वज्ञ-देव उपचार से पुद्गल-परमाणु को काय अर्थात् नानाप्रदेश स्वभाव युक्त कहते हैं ।बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्हु ॥२६॥ सूत्र ८५ में बतलाया है कि परमाणु को बहुप्रदेशी कहना स्वजात्यसद्भूत-व्यवहार उपनय का विषय है । वृहद्द्रव्यसंग्रह में कालाणु के बहुप्रदेशी न होगे के सम्बन्ध में निम्न कथन पाया जाता है -- अत्र मर्त यथा पुद्गलपरमाणोर्द्रव्यरूपेणैकस्यापि द्ववणुकादि-स्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूपं कायत्वं जातं तथा कालाणोरपि द्रव्ये-णैकस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवत्विति ? तत्र परिहार: स्निग्धरूक्षहेतु कस्य बन्धस्याभावान्न भवति । तद्पि कस्मात् ? स्निग्धरूक्षत्वं पुद्गल-स्यैव धर्मो यत: कारणादिति ॥वृ.द्र.सं.२६.टी.॥
अर्थ – यदि कोई ऐसी शंका करे कि जैसे द्रव्यरूप से एक भी पुद्गल-परमाणु के द्वि-अणुक आदि स्कंध-पर्याय द्वारा बहुप्रदेशरूप कायत्व सिद्ध हुआ है, ऐसे ही द्रव्यरूप से एक होने पर भी कालाणु के पर्याय द्वारा कायत्व सिद्ध होता है ? इसका परिहार करते हैं कि स्निग्ध-रूक्ष गुण के कारण होने वाले बन्ध का काल-द्रव्य में अभाव है इसलिये वह काय नहीं हो सकता । ऐसा भी क्यों ? क्योंकि स्निग्ध तथा रूक्षपना पुद्गल का ही धर्म है। काल में स्निग्धता, रूक्षता नहीं होने से, बंध नही होता । अत: कालाणु के उपचार से भी बहु-प्रदेशी-स्वभाव नहीं है ।
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