+ नय की परिभाषा -
प्रमाणेन वस्‍तु संगृहीतार्थेकांशो नय:, श्रुतविकल्‍पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नय:, नानास्‍वभावेभ्‍यो व्‍यावृत्‍य एकस्मिन् स्‍वभावे वस्‍तु नयति प्राप्‍नोतीति वा नय: ॥181॥
अन्वयार्थ : प्रमाण के द्वारा सम्‍यक् प्रकार ग्रहण की गई वस्‍तु के एक धर्म अर्थात् अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । अथवा, श्रुतज्ञान के विकल्‍प को नय कहते हैं । ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं । अथवा, जो नाना स्‍वभावों से हटाकर किसी एक स्‍वभाव में वस्‍तु को प्राप्‍त कराता है वह नय है ।

  मुख्तार 

मुख्तार :

सूत्र ३९ में भी प्रमाण के अवयव को नय कहा है । यहाँ पर नय का लक्षण नाना प्रकार से कहा है। स.सि. में नय का लक्षण इस प्रकार कहा है --

तावद्वस्‍तुन्‍यनेकान्‍तात्‍मन्‍यविरोधेन हेत्‍वर्पणात्‍साष्‍यविशेषस्‍य यथा-त्‍म्‍यआपण प्रवण: प्रयोगो नय: ॥स.सि.१/३३॥
अर्थ – अनेकान्‍तात्मक वस्‍तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्‍यता से साध्‍य-विशेष की यथार्थता के प्राप्‍त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं ।