
मुख्तार :
गुण-गुणी का भेद करके या पर्याय-पर्यायी का भेद करके जो वस्तु को ग्रहण करता है वह व्यवहारनय है । जैसे -- जीव के ज्ञान, दर्शन आदि गुण तथा नर, नारक आदि पर्यायें । पुद्गल के मूर्तिक गुण को जीव में बतलाना और जीव के चेतन गुण को पुद्गल में बतलाना इस प्रकार उपचार करके वस्तु को ग्रहण करना व्यवहारनय का विषय है । गाथा ४ में कहा गया है कि व्यवहारनय का हेतु पर्यायार्थिक नय है । यह भेद सर्वथा असत्य भी नहीं है । यदि इसको सर्वथा असत्य मान लिया जाय तो आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे भेद सम्भव नहीं हैं तथा प्रत्यक्ष के विषयभूत जीव में मनुष्य, तिर्यंच आदि पर्यायों की अपेक्षा भेद भी सम्भव नहीं होगा तथा गुण-गुणी आदि में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा भेद सिद्ध नहीं होगा । यदि उपचार को सर्वथा असत्य मान लिया जाय तो सिद्ध भगवान के सर्वज्ञता का लोप हो जायगा, जीव में भूर्तत्व के अभाव में संसार का लोप हो जायगा । ऐसा सूत्र १४३ व १४९ में कहा गया है । अतः व्यवहार का विषय भी यथार्थ है । |