
मुख्तार :
इस शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा जीव के न बंध है, न मोक्ष है और न गुणस्थान आदि हैं । बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति तथा बंधपूर्वको मोक्षोऽपि । यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बंधो भवति तदा सर्वदैव बंध एव, मोक्षा नास्ति । (वृ.द्र.सं.५७टी.) अर्थ – शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा बंध ही नहीं । इसी प्रकार शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा बंधपूर्वक मोक्ष भी नहीं है। यदि शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा बंध होवे तो सदा ही बंघ होता रहे, मोक्ष ही न हो । णवि होदि अप्पमन्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।;;एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ॥स.सा.६॥;;ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्ति दंसणं णाणं ।;;णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ अर्थ – शुद्ध-निश्चय नय की अपेक्षा जीव प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं है । सद्भूतव्यवहार नय से जीव के चारित्र, दर्शन और ज्ञान कहे गये हैं । शुद्धनिश्चय नय से जीव के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है । इस प्रकार का अभेद शुद्ध-निश्चय नय का विषय है । |