
मुख्तार :
अशुद्ध निश्चयनय संसारी जीव को गुण और गुणी में अभेद दृष्टि से ग्रहण करता है, क्येांकि संसारी जीव कर्मजनित विकार सहित होता है । संसारी जीव में 'मतिज्ञान' ज्ञान-गुण की विकारी अवस्था है । अतः निश्चयनय मतिज्ञान और संसारी जीव को अभेद रूप से ग्रहण करता है । जैसे -- मतिज्ञानमयी जीव । क्योंकि, ज्ञान जीवस्वरूप है । शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार है, ऐसा समयसार में कहा गया है -- ननु वर्णादयो बहिरंगास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत्संश्लेषसंबंधो भवतु नचाभ्यंतराणां रागादीनां तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति ? नैवं, द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्य-ज्ञापनार्थ रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चया-पेक्षया पुनरशुद्धनिश्चययोपि व्यवहार एवेति भावार्थः ॥स.सा.५७.टी॥ अर्थ – यह शंका की गई कि वर्णादि तो बहिरंग हैं, इनकी साथ आत्मा का क्षीर-नीरवत् संश्लेष संबंध हो किन्तु अभ्यन्तर में उत्पन्न होने वाले रागादि का आत्मा के साथ व्यवहारनय से संश्लेष सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि रागादि का सम्बन्ध अशुद्ध निश्चयनय से है ? आचार्य समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है, द्रव्य-कर्म बंध की अपेक्षा वह तो असद्भूत व्यवहारनय है, उस व्यवहारनय की अपेक्षा तरतमता दिखलाने के लिये रागादि का सम्बन्ध अशुद्ध निश्चयनय से कह दिया गया । वास्तव में शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार है । यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन चेतनानि तथापि शुद्धनिश्चयेन नित्यं सर्व-कालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षया-भ्यंतररागाद्यश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्ध-निश्चयापेक्षया व्यवहार एव । इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनय विचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं । (स.सा.६८टी.) अर्थ – रागादि यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से चेतन है तथापि शुद्ध निश्चयनय से नित्य सर्वकाल अचेतन हैं । यद्यपि द्रव्य-कर्म की अपेक्षा आभ्यन्तर रागादि चेतन है ऐसा माना गया है और निश्चय संज्ञा को प्राप्त हैं तथापि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वस्तुतः अशुद्ध निश्चयनय व्यवहार ही है । निश्चय नय और व्यवहारनय के विचार काल में यह व्याख्यान सर्वत्र जान लेना चाहिये । द्रव्यकर्माण्यचेतनानि भावकर्माणि च चेतनानि तथापि शुद्ध-निश्चयापेक्षया अचेत- नान्येव । यतः कारणादशुद्धनिश्चयोपि शुद्ध-निश्चयापेक्षया व्यवहार एव । अयमत्र भावार्थः । द्रव्यकर्मणां कर्तृत्वं भोक्तृत्वं चानुपचरितासद्भूतव्यवहारेण रागादिभावकर्मणां चाशुद्धनिश्चयेन । स च शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहारएवेति । (स.सा.११५.टी.) अर्थ – द्रव्य-कर्म अचेतन हैं, भाव-कर्म चेतन हैं तथापि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा भाव-कर्म अचेतन हैं । इसलिये शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय व्यवहार ही है । आत्मा द्रव्य-कर्मों का कर्ता व भोक्ता है, यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का विषय है और रागादि का भोक्ता और कर्ता है, यह अशुद्ध निश्चयनय का विषय है । वह अशुद्ध निश्चयनय भी शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही है । अतः समयसार आदि ग्रन्थों में निश्चय और व्यवहार का यथार्थ अभिप्राय जानकर अर्थ करना चाहिये क्योंकि, कहीं-कहीं पर असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा सद्भूतव्यवहार को भी निश्चय कह दिया गया है । जैसे, व्यवहार-षट्कारक असद्भूतव्यवहार नय की अपेक्षा हैं और निश्चय-षट्कारक सद्भूत-व्यवहार नय की अपेक्षा हैं क्योंकि निश्चयनय में षट्कारक को भेद नहीं है । |