+ धृष्टतापूर्वक फिर भी आपकी स्तुति करता हूँ -
तथाऽपि वैय्मात्यमुपेप्य भक्त्या
स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः ।
इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति
किंनोत्सहंते पुरुषा: क्रियाभि: ॥3॥
अन्वयार्थ : [तथापि] फिर भी मैं [भक्त्या] भक्ति के वश [वैयात्यं] धृष्टता को [उपेत्य] धरण करके [शक्त्यनुरूपवाक्यः] शक्ति के अनुरूप वाक्यों को लिये हुए [ते] आपका [स्तोता अस्मि] स्तोता बना हूँ (आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ)[पुरुषाः] पुरुषार्थीजन [इष्टे प्रमेये अपि] इष्ट साध्य के होने पर [यथास्वशक्ति] अपनी शक्ति के अनुसार जैसे भी [क्रियाभिः] अपने प्रयत्नों के द्वारा [किं न उत्सहंते] क्या उत्साहित एवं प्रवृत्त नहीं होते हैं ?

  वर्णी 

वर्णी :

तथाऽपि वैय्मात्यमुपेप्य भक्त्या

स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः ।

इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति

किंनोत्सहंते पुरुषा: क्रियाभि: ॥3॥