त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदस्य काष्ठां
तुला-व्यतीतां जिन ! शांतिरूपाम् ।
अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता
महानिनीयत् प्रतिवक्तुमीशा: ॥4॥
अन्वयार्थ : [जिन!] हे जिन! [त्वं] आप [शुद्धिशक्त्योः] शुद्धि और शक्ति के [उदयस्य काष्ठां] उदय की उस पराकाष्ठा को [अवापिथ] प्राप्त हुए हैं [तुलाव्यतीतां] जो उपमा रहित है तथा [शान्तिरूपाम्] शान्ति-सुख स्वरूप है । [ब्रह्मपथस्य नेता] आप ब्रह्मपथ के नेता हैं, [महान्] महान् हैं और [इति] इस प्रकार [इयत्] इतना ही [प्रतिवक्तुं] आपके प्रति कहने के लिए [ईशाः] हम समर्थ हैं।
वर्णी
वर्णी :
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदस्य काष्ठां
तुला-व्यतीतां जिन ! शांतिरूपाम् ।
अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता
महानिनीयत् प्रतिवक्तुमीशा: ॥4॥
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