अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वं
तव स्वतंत्राऽंयतरख-पुष्पम् ।
अवृत्तिमत्त्वात्समवाय-वृत्ते:
संसर्गहाने: सकलाऽर्थ-हानि: ॥7॥
अन्वयार्थ : हे वीर भगवन्! [तव] आपका [अर्थतत्त्वम्] अर्थतत्त्व [अभेद-भेदात्मकम्] अभेद-भेदात्मक है। [स्वतन्त्रान्यतरत्] दोनों को स्वतन्त्र स्वीकार करने पर [खपुष्पम्] प्रत्येक आकाश-पुष्प के समान हो जाता है। उनमें [समवायवृत्तेः] समवायवृत्ति के [अवृत्तिमत्त्वात्] अवृत्तिमती होने से [संसर्गहानेः] संसर्ग की हानि होती है और संसर्ग की हानि होने से [सकलार्थ-हानिः] सम्पूर्ण पदार्थों की हानि ठहरती है ।
वर्णी
वर्णी :
अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वं
तव स्वतंत्राऽंयतरख-पुष्पम् ।
अवृत्तिमत्त्वात्समवाय-वृत्ते:
संसर्गहाने: सकलाऽर्थ-हानि: ॥7॥
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